स्त्री तेरी क्या पहचान लिखूं
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लिखना तो बहुत कुछ चाहता हूं,
पर समझ ना आए मैं क्या लिखूं ।
इतने रूप है तेरे, तुझे किन रूप में लिखूं,
हे स्त्री तू ही बता तेरी मैं क्या पहचान लिखूं ।।
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तुझे जिस रूप में देखा,वही तू बा-कमाल सी है,
शालीनता में मां सीता और विकराल में मां काली सी है ।
तू है एक त्याग की देवी, तेरा हर त्याग देखा है ,
पन्नाधाय में तुझे और मा सावित्री में देखा है।।
गर बात प्रेम की आए,तो उसमें लाजवाब सा है तू ,
चाहे हो राधिका या फिर मीरा सी बनी है तू।
है तेरे रूप ही अनंत,किन रूप में लिखूं,
हे स्त्री अब तू ही बता तेरी क्या पहचान लिखूं।।
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मैं तेरे कोख से जन्मा, तुझे अब जानने चला हूं,
है कितने और रूप तेरे, उन्हें पहचानने चला हूं।
बात अपनों पर आए तो, तू खुद को भूल जाती है,
चाहे प्रेम हो, रिश्ता हो,या मकसद सब कुछ छोड़ आती है।।
खुद के सपनों को छोड़,अपनों के सपने साकार करती है,
सही खुद भी ना हो फिर भी,तू सबका ध्यान रखती है।
ये सारी बातें छोटी और क्या बात मैं लिखूं,
हे स्त्री अब तू ही बता ,तेरी मैं क्या पहचान लिखूं।।
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मां में प्यार, बहन में दोस्त,पत्नी में हमदर्द देखा है,
बेटी में तुझे मैंने, अलग अपनी पहचान देखा है,।
ये दुनिया बावली है,तुझे अब भी नहीं जानती है,
बनाकर झूठे रिश्तो को, तुझे हर बार नोचती है।
फिर भी तू है बड़ी महान, उन्हें तो माफ कर देती,
तू है क्या असल में, उन्हें एक पहचान दे देती।
है और भी रूप तेरे, मैं बस इतना ही पिरोता हूँ,
तेरी हर एक कड़ी को जोड़कर सब कुछ जानना चाहता हूं।
तुझे और किन रूप में, और कितनी बार मैं लिखूँ,
हे स्त्री तू ही बता,तेरी मैं क्या पहचान लिखूँ।।
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तुमसा मित्र ना कोई,ना तुमसा शत्रु देखा है,
तुझसा वीर ना कोई, न कोई शौर्य देखा है।
बनकर कल्पना तुझे आकाश में उड़ते देखा है,
बात धरती की आए तो लक्ष्मीबाई को देखा है।
है तुझमें हौसले बहुत , किन हौसले को लिखूँ,
हे स्त्री अब तू ही बता, मै तेरी क्या पहचान लिखूं।।
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बनके नादान परिंदा, शून्य को नापने चला हूं ,
जो है अभेद, उसे कुछ भेजने चला हूं।
है जो छिपी तेरी पहचान,उन्हें अब निखारने चला हूं,
मै किसी पत्थर में एक मूर्ति उकेरने चला हूँ ।
है छिपे जो तेरे निशा, उन निशा को क्या लिखूं,
हे स्त्री तू ही बता ,तेरी मै क्या पहचान लिखूँ।।
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----------????स्वरूप सिह राठौड़????---------
