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साक्षात्कार

रणविजय राव के सवालों पर लालित्य ललित के जवाब


रणविजय राव :-आप अब आप विलायतीराम पांडेय हैं या लालित्य ललित ? लालित्य ललित मतलब क्या ?
लालित्य ललित :- देखिये,मेरा लेखकीय नाम लालित्य ललित है,पूरा नाम ललित किशोर मंडोरा है। नाम को जानने के लिए फ़्लैश बैक में जाना पड़ेगा,जब डॉ कमल किशोर गोयनका एमए के दिनों में क्लास लेते थे। वे कहते थे कि मेरा नाम कमल किशोर गोयनका है और तुम्हारा बढ़िया और सुंदर नाम है, फिर ये लालित्य ललित क्यों ?
हमने भी किसी पिनक में कह दिया कि सर लेखन की दुनिया में अलग-सा दिखने के लिए उपनाम का सहारा लिया। अब तो लोग देखते ही कहने लगते है कि लालित्य ललित उर्फ विलायती राम पांडेय। कई असली पांडेय भी मेरे मित्र हैं, जिसमें राकेश पांडेय और जयप्रकाश पांडेय। वे भी अपनी खुशी जाहिर करते हैं कि क्या भइया पांडेय को छोड़ोगे नहीं, वैसे मज़ाक में कहते हैं।

अब लालित्य ललित मतलब क्या ?
      सीधा-सा जवाब दूं तो लालित्य ललित उस इकाई का नाम है, उस प्रतीक का नाम है जो सजग है और सामाजिक विसंगतियों को देख तत्काल बैचेन हो जाता है। उसकी जठराग्नि लेखन के माध्यम से प्रस्फुटित हो जाती है।पांडेय जी किरदार के माध्यम से वे हमेशा एक्टिव मॉड पर रहते हैं। एक बार तो प्रोफेसर बलदेव भाई शर्मा ने कहीं कह दिया था कि पांडेय जी से बच कर रहना चाहिये कि क्या पता उनके समक्ष कुछ मुँह से निकल जाए और वह अखबार की सुर्खियां बन जाए !

रणविजय राव :- कहां आप कविताओं में रमे थे। व्यंग्य में कैसे कूद गए ? और कूदे भी ऐसे जैसे सबको हराने पर तुले हैं ?
लालित्य ललित :- बहुत सही कहा। कविताएं शुरू से लिखता रहा।पहले सुरेंद्र शर्मा की क्षणिकाएं स्कूल में मित्रों को सुनाता था। फिर किसी ने कहा कि आपको अपना लिखना चाहिए, बस उसी दिन से लिखने लगा।
       पहला कविता संग्रह आने से पहले 61 कवियों की रचनाओं का संचयन निकाल दिया "कविता सम्भव" के नाम से। जब सुधीश पचौरी की एक पुस्तक आई थी कविता का अंत,ऐसे समय में कविता सम्भव लाना बड़ी बात थी, कम से कम मेरे लिए।
        व्यंग्य में आना भी हैरतअंगेज रहा। मेरे पड़ोस में डॉ प्रेम जनमेजय और डॉ हरीश नवल रहते हैं। उनसे मिलता था। दोनों की रचनाएँ पढ़-सुनकर अच्छा लगता। दोनों मिलने पर अपनी रचनाएँ सुनाते। मैं उनपर राय भी देता। बस यह सोचिये कि वहीं से व्यंग्य नामक वायरस ने मुझे जकड़ लिया। और ऐसे जकड़ा कि बाकी आप जानते ही हैं।
       मेरे व्यंग्य को पाठकों तक लाने में डॉ गिरिराजशरण अग्रवाल का नाम सर्वोपरि है और रहेगा। उसके बाद उन्होंने मेरे दो और व्यंग्य संग्रह प्रकाशित किये,जिसमें 'जिंदगी तेरे नाम डार्लिंग', 2015 में और 'विलायती राम पांडेय', 2016 में।
उसके बाद से अब तक मेरे 18 व्यंग्य संग्रह आ गए हैं। देश के बेहतरीन प्रकाशकों से और कई संग्रह अभी पाइप लाइन में हैं।

रणविजय राव :- ऐसा लगता है कि आपको लेखन की भूख है। आखिर इतनी ऊर्जा लाते कहां से हैं ?
लालित्य ललित :- वाह ! सही कहा। वास्तव में ये रचनात्मक भूख ही है, जो मुझे चुप रहने नहीं देती। कई बार तो मैं बैठे-बैठे लिख देता हूँ। उंगलियां चलती रहती हैं। दिमाग एक्टिव रहता है। ऊर्जा देने वाला कोई अज्ञात शक्तिमान है जो सदैव मेरे भीतर मुझ को संचालित करता रहता है। लिखना मुझे अच्छा लगता है।

रणविजय राव :- आपको व्यंग्यकार बनाने में प्रेम जनमेजय जी का बड़ा योगदान है, ऐसा लोग मानते हैं। हरीश नवल जी की भी नजर आपके व्यंग्य पर रहती है। आपका क्या कहना है ?
लालित्य ललित :- निश्चित ही दोनों आदरणीय हैं, उनका स्नेह और आशीर्वाद है मेरे साथ। कभी-कभार वैचारिक मतभेद भी होते हैं। पर स्वस्थ परम्परा का निर्वाह करते हुए हम एक हैं। जब कोई यह कहता है कि पश्चिम विहार में व्यंग्य त्रयी है, खुशी होती है। मैं तो अकिंचन हूँ और व्यंग्य का विद्यार्थी हूँ, और वे दोनों एक विभागाध्यक्ष की भूमिका में रहे हैं और रहना भी चाहिए। वैसे प्रेम जी के निर्देश रचनाओं पर मिलते रहते हैं जिसका मैं पालन भी करता हूँ।
        हर व्यंग्यकार नई पीढ़ी को प्रेरित करता है और करता आया है। यह सही है। गगनांचल से लेकर प्रेम जनमेजय जी और अब हरीश नवल जी रचनात्मक सहयोग लेते रहे हैं, आपको बता दूं कि गगनांचल में मुझे लिखने का ब्रेक कथाकार और समहुत पत्रिका के सम्पादक डॉ अमरेंद्र मिश्र ने दिया। उन्होंने मुझसे सोलह वर्ष कॉलम लिखवाया।
       कन्हैयालाल नंदन जी,राजकुमार गौतम के लिए भी मैं गगनांचल में सहयोग देने से कभी हिचका नहीं।
       हरीश जी से मैंने बहुत कुछ सीखा है और मैं यहां कहना चाहूँगा कि जहां से कुछ अच्छी सीख मिले, उसे फौरन लेने में हिचकना नहीं चाहिए।

रणविजय राव :- निस्संदेह "व्यंग्य यात्रा" व्यंग्य जगत का ही नहीं बल्कि पूरे हिंदी साहित्य का भी एक बड़ा मंच है। आप उसके राष्ट्रीय समन्वयक हैं। आपके लेखकीय जीवन में व्यंग्य यात्रा का क्या योगदान है ?
लालित्य ललित :- ये आपने बड़ा सवाल कर दिया बड़ी बेबाकी से।निश्चित ही व्यंग्य यात्रा के लिए हम सब टीम वर्क की तरह काम करते हैं और करते आये हैं।इसका समन्वय कार्यशालाओं के सन्दर्भ में मैं करता आया हूँ, प्रेम जनमेजय जी थोड़े हिचकते हैं इन सब कामों से। वे पत्रिका और सत्र निर्धारण में सक्रिय रहते हैं।
         हमारी भी कोशिश रहती है कि पत्रिका सही हाथों में जाए। कार्यशालाओं से बौद्धिक सजगता कायम होती है। इसी कारण हमें अनेक रचनात्मक प्रतिभाओं से परिचय भी होता है। मेरी कई व्यंग्य रचनाओं का प्रकाशन प्रेमजनमेजय जी ने किया है।
         व्यंग्य यात्रा ने मेरी रचनात्मक क्षमता को क्षितिज दिया। पत्रिका के माध्यम से गौतम सान्याल जैसे व्यंग्य समालोचकों से मिलने का अवसर हुआ।
        दूसरी बात मैं कहना चाहूँगा कि प्रेम जनमेजय जी नरम दल से सम्बद्ध हैं और मैं गरमदल से। यदि प्रेम जनमेजय जी को कोई कुछ कह देता है तो उसकी जानकारी हमें फौरन मिल जाती है। मुझे यह भी लगता है कि व्यंग्य साहित्य में भी दुष्ट संक्रमण की कमी नहीं है। मैं अक्सर उन्हें कहता भी हूँ कि आपको अपनी पॉलिसी बदलनी चाहिए।
       एक बार ज्ञान चतुर्वेदी जी ने किसी आलेख में या कहीं यह कह दिया कि प्रेम जनमेजय और हरीश नवल को मैंने कूड़े की मानिंद ढोया है।
सोचिये जरा!
        मैं तो यहां तक कहूँगा कि ऐसा कहना ही मानसिक दुर्बलता की निशानी है। भाई आप स्वस्थ नहीं हैं अपनी विचारधारा में। जबकि हरीश नवल जी ने इस बात को लेकर अपनी चिंताएं भी जाहिर की,लेकिन प्रेमजनमेजय जी खामोश रहे। अब क्यों खामोश रहे। इसके बारे में आपको उनसे भी पूछना ही चाहिए।

रणविजय राव :- क्या आपको लगता है कि व्यंग्य यात्रा ने आपके लेखन को भी समृद्ध किया है ?
लालित्य ललित :- इसके बारे में आपको बता ही चुका हूँ,कई बार तो प्रेम जी कह भी देते हैं कि ये पत्रिका लालित्य ललित की है,मैं भी कह देता हूँ कि इस बात को रिकार्ड में दर्ज होना चाहिए। आज व्यंग्य की अनेक पत्रिकाएं हैं, पर आप देखिये उनका स्तर कहाँ है। उसकी सामग्री को लेकर सम्पादक की क्या चिंताएं हैं।
        जब मित्र सिफारिश करते हैं तो उनको मेरा निवेदन यह रहता है कि भइया पत्रिका के सम्पादक का निर्णय अंतिम होता है जो सर्वमान्य है। कई बार हमारी भी रचनाएँ उन्हें नहीं जमतीं तो तत्काल व्हाट्सएप या फ़ोन आ जाता है। हमें एक बार तो बुरा लगता है,पर सोचते हैं कि आखिर कमियों को दूर भी करना अनिवार्य है, बस बुरा नहीं मानते।

रणविजय राव :- अब आप जीवन के अर्द्धशतक पूरा करने की दहलीज पर खड़े हैं। इस अल्प आयु में भी आपने बहुत कुछ लिख लिया, बहुत कुछ हासिल भी कर लिया। एक फलदार वृक्ष की तरह झुकने की बजाय, एक तरह का अक्खड़पन पर नजर आता है आपके व्यक्तित्व में। क्या आपका यही स्वभाव है या आप जानबूझकर ऐसा करते हैं ?
लालित्य ललित :- देखिए मैं शुरू से जिद्दी रहा, स्कूल में एक बार एक अध्यापक को टॉयलट में बन्द कर दिया। वह बच्चों को मारता बहुत था। एक बार कालेज के एक टीचर ने हाथ मरोड़ दिया तो उसको यही कहा कि सर! आज यू स्पेशल पकड़ कर दिखाना। वे बेचारे शाम तक स्टाफ रूम में बैठे रहे। ये कुछ किस्से हैं जो याद रहने वाले हैं।
बहरहाल समय कैसे बीत गया,पता ही नहीं चला। बच्चे भी बड़े हो गए। कुछ समय बाद उन्हें उनको मनोवांछित मिलेगा और हमें हमारी महत्वकांक्षी योजनाओं का फल।
          लिखना पैशन रहा है। मैं सब कुछ छोड़ सकता हूँ, पर लिखना कभी नहीं। जिद्दी हूँ,था और रहूँगा। पर मुझे लगता है तत्काल रिएक्ट नहीं करना चाहिए, इस बात को मानता भी हूँ।पर गुस्सा आ ही जाता है,नहीं तो अपने पात्र विलायतीराम पांडेय के माध्यम से मैं बदला ले लेता हूँ,छोड़ता नहीं।
         अक्खड़पन के बारे में कहूँ तो देखिये सुई एक तरफ पड़ी है,यदि किसी ने मंशागत रखी है तो आपका गुस्सा आना लाजिमी है।मैं भी उनमें से हूँ,यदि मुझे कोई छेड़े तो भुगतने को तैयार भी रहे। जानबूझकर कौन किसे तंग करता है। लेकिन जब से व्यंग्य लिखना शुरू किया है तो कई लोगों को लगता है कि ये कविता का आदमी हमारे क्षेत्र में क्यों आ गया ?
          अरे! स्वागत करना चाहिए कि व्यंग्य का विस्तार हो रहा है।

रणविजय राव :- आप अपने लेखन को सकारात्मक मानते होंगे पर कई साहित्यकार आपके लेखन को नकारात्मक मानते हैं। उनको लगता है कि आपके लेखन में या आम प्रतिक्रिया में भी प्रतिशोध के भाव ज्यादा होते हैं। आपका क्या कहना है ?
लालित्य ललित :- देखिये राव साहब, मैं सकारात्मक ऊर्जा से लबरेज हूँ,रहता हूँ और रहता रहूँगा। अब वे क्या मानते हैं, क्यों मानते हैं, मुझे यह नहीं पता।उनके मापने का निर्धारण क्या है ? उनको किस सरकारी या गैरसरकारी समिति ने अनुबंधित किया है ?
       दरअसल, ये वे लोग हैं जो चूक चूके हैं।अब उनका लेखन से कोई सरोकार नहीं। केवल गप्प बाजी और चुगली-चट्टे करना उनका शगल है। मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूँ, सजग भी रहता हूँ। जब उनके ही मित्र बताते हैं तो विस्मित भी होता हूँ।
          बहरहाल ज्यादा कुछ नहीं कहना। मेरा यह मानना है कि हर आलोचना का जवाब लेखन से देना रचनात्मक कर्म है, जिसे मैं पूरे मन से करता हूँ। लेखन में वही प्रतिशोध दिखाई देगा जो उसने देखा और प्रहार करने के लिए निशाने को धनुष पर केंद्रित किया। और इसका पालन मैं बखूबी करता हूँ।

रणविजय राव :- क्या ऐसा नहीं है कि इसी प्रतिशोध की भावना के कारण आपने अपने अनेक दुश्मन खड़े कर लिए हैं ?
लालित्य ललित :- वाह ! मन की कही। हर सफल व्यक्ति के पीछे कई ऐसे लोग होते हैं जो उनकी सफलता से खुश नहीं होते। साहित्य में भी ऐसे किरदार बहुत हैं। कभी वक्त आने पर उन सभी के नाम लिए जाएंगे।
        वैसे स्वस्थ आलोचना का हमेशा स्वागत किया जाना चाहिए, पर हमारे यहां दुर्भाग्य ऐसा है कि स्वस्थ मानसिकता वाले आलोचकों ने भी अपनी खिड़कियां बन्द कर रखी हैं। उनको इस आचरण से बचना चाहिए। मैं अपने लेखन धर्म से प्रसन्न हूँ और यदि कोई इससे भी अंसतुष्ट है तो उसके लिए मैं क्या कह सकता हूँ। इसको उनके व्यक्तिगत विकार समझ कर आगे बढ़ जाना चाहिए। आजकल मैं यही करता हूँ।

रणविजय राव :- कुछ दिनों पूर्व अपने एक साक्षात्कार के दौरान कहा कि लिखना मेरे लिए बौद्धिक मल के सिवाय कुछ नहीं। इसकी बड़ी आलोचना हुई। ऐसा क्या सोच कर कहा आपने ? इसके लिए तो बहुततेरे पर्यायवाची हैं। और भी किसी शब्द का चयन कर सकते थे ?
लालित्य ललित :- मेरे इस आशय को लेकर किसी ने फेसबुक पर एक पोस्ट लगाई और कुछ व्यंग्य के धुरंधरों ने अपनी क्षमता के मुताबिक अपने ज्ञान का परिचय भी दिया। मैं समझ गया, जिसने जो व्याख्या की, उनके शब्दकोश में वही सब कुछ था। जो जिसके पास होता है वह दूसरे को भी वही देने की कोशिश करता है।
          बौद्धिक मल वाले मेरे वक्तव्य पर बहुत तीखी प्रतिक्रियाएं हुई हैं लेकिन अफसोस इस बात का है कि बौद्धिक मल को केवल अभिधा के रूप में ही समझा गया। इस शब्द की ध्वनि को किसी ने पकड़ा नहीं। मेरा मानना है कि हमारे मन में कई तरह के द्वेष-ईर्ष्याएं और कुंठाएं रहती हैं। यह सब बौद्धिक मल नहीं तो और क्या है ?
          मैं अपने लेखन के माध्यम से इन्हीं कमजोरियों से मुक्ति पाता हूं। यानी लेखन उसी तरह से विरेचन है जिस तरह से पाठक या दर्शक रचना को पढ़कर या नाटक देख कर अपने इन्हीं मनो भावनाओं से मुक्ति पाता है।
         खैर, जैसे बताया कि सबकी अपनी-अपनी व्याख्या ह। उन सभी का स्वागत करना चाहिए। आखिर व्यंग्य के क्षितिज का विस्तार तो हुआ ही है।

रणविजय राव :- "अब तक 75" के बाद 'इक्कीसवीं सदी की 101श्रेष्ठ व्यंग्य' रचनाओं का संचयन। अब इसके बाद क्या ?
लालित्य ललित :- राव साहब,आप भूल रहे हैं। इससे पहले मैं 'चाटुकार कलवा' नाम से एक संचयन निकाल चुका हूँ, जिसमें देश के 56 व्यंग्यकार शामिल किये गए।
         उसके बाद एक और योजना मन में कुलबुला रही थी जिसे 'इक्कीसवीं सदी की 101 श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं' नाम दिया गया है। इसमें देश और विदेश के चुनिंदा व्यंग्यकारों की रचनाओं को लिया जाएगा।
          मुझे तो हैरानी इस बात की हुई कि महज चार-पांच दिनों में व्यंग्यकारों की रचनाओं से मेल हैंग कर गया। सोचिये कितना उत्साह है लोगों का व्यंग्य के प्रति ! इस संचयन की गूंज अमेरिका से लेकर यूएई और न्यूजीलैंड, इटली, कनाडा तक से वाट्सप आ रहे हैं।

रणविजय राव :- इसके बाद क्या ?
लालित्य ललित :- जाहिर है समय का सदुपयोग करेंगे। कुछ रचनात्मक करेंगे। मानिए कुछ बड़ा ही होगा।सभी को विस्मित करने वाला प्रयास, जिसमें हम सफल भी होंगे। काम करना हमेशा से अच्छा लगता रहा है।

रणविजय राव :- नए युवा व्यंग्यकारों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे ?
लालित्य ललित :- मैं अभी बुजुर्ग नहीं हुआ। संदेश देते हरीश नवल जी और प्रेम जनमेजय जी अच्छे लगते हैं। मैं तो इतना भर कहूँगा कि सम्मान करना सीखे नई पीढ़ी। लेखन के साथ जो वरिष्ठ पीढ़ी ने लिख दिया,अगर खरीद कर नहीं पढ़ सकते तो किसी पुस्तकालय की मदद से अवश्य पढ़िए।
        आज भी शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी, श्रीलाल शुक्ल से लेकर मनोहरश्याम जोशी को पढ़ने की आवश्यकता है। उसके बाद जो पीढ़ी सक्रिय है, उनसे सम्वाद करिये। पुस्तक मेले में अवश्य जाइए। किसी लेखक को समझने के लिए आप को उसका लेखन अवश्य ही पढ़ना व समझना चाहिए।

रणविजय राव :-  हम आपके आभारी हैं। आपने अपना कीमती समय हमें दिया।
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