रचना के विवरण हेतु पुनः पीछे जाएँ रिपोर्ट टिप्पणी/समीक्षा

आत्मग्लानि

मेरी कहानी

हर रात की तरह इस रात भी खुद से लड़ते-लड़ते ना जाने कब नींद आ गयी और सुबह उठते ही जिंदगी की उसी जद्दोजहद में मैं निकल पड़ा।

गाड़ी में बैठने के साथ लग रहा था कि "आज कुछ छूट गया है घर पर..."


...गली के नुक्कड़ तक पहुंचने से पहले मोबाइल, लैपटॉप, डायरी, पेन, टिफिन सब कुछ तो संभाल लिया था फिर भी क्यों ऐसा लग रहा था कि  "आज कुछ छूट गया है घर पर..."


....सब कुछ साथ होते हुए भी ना जाने क्यों खाली सा लग रहा था इसी उधेड़बुन में आज ऑफिस में होकर भी  मैं वहाँ नहीं था।

...ड्रोर खोल सर दर्द की दवा लेने के लिए जैसे ही मैंने हाथ बढ़ाया, अनायास ही मुझे याद आ... "आज मां को दवा देना भूल गया हूँ मैं।"

आत्मग्लानि से मेरी आंखें झुक गयी और एक पल इस मशीन सी जिंदगी पर शर्म आई और दूजे ही पल...

"मैं निकल पड़ा घर की ओर, जो छूट गया था उसे पाने की ओर।"

टिप्पणी/समीक्षा


आपकी रेटिंग

blank-star-rating

लेफ़्ट मेन्यु