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तितली

मै ढूंढता प्रियतम तुझें,

इस उजाड़ उपवन में,

पर,क्या कसूर मेरा ?

जो नही मिल रही है मुझे

            पहले जब तू आती थी मुझसे मिलने,

            इस एकांत उपवन में,

            फूलों के करीब कैसे इतराती थी, 

            रंग बिरगें कपडो़ मे,

            परियों सी दिखती थी,

शाम को होते थे जब हम दोनों अकेले,

दूर रहते थे जग के सारे झमेले,

ये बंसती हवा ,जब तेरा बदन सहलाती, 

तब तू तन-मन ईठलाती,

            अगर मै पकड़ना चाहता तुझकों,

             दूर से ही ठेगा दिखाती तू मुझकों,

             दूर से ही चाहती थी तू मिलन,

             दूर से ही देती आनंद-रस,

लेकिन,

            अब क्यों नही आती,

            कोई संदेशा भी न भिजवाती,

याद है मुझे ,कुछ बरस पहले,

तुझसे दूर परदेश में, हो गया था अकेले,

पर ,कुछ दिन हुये आये मुझे,

तबसे दिन भर ढूंढता तुझे,

पर न जाने क्यो नही मिल रही मुझें,

            मै चाहता हूं एक बात पूंछना तुझसे, 

            तू आकर बता तो  मुझसे,

आखिर क्या हो गया इस उपवन में ?

वो कोयल की कूंकें ,फूलों की लाली है कहां ?

वो सुंदर सी हरियाली है कहां?

वो खुशबूं की बहार आखिर गई कहां?

उपवन की वह आकर्षक छवि है कहां?

           आखिर यह जन्नत सा रहा उपवन,

           क्यों दे रहा जहन्नुम सा त्रास,

क्या! ! क्या! !

           तू भी है इसीलिए उदास,

           अब नही आयेगी मेरे पास,

लेकिन ,

मै अब भी ढूंढता प्रियतम तूझें,

पर शायद नही मिलेगी मुझें।


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