कोरे कागज की कलम से....
चाहतें कई......इबादते कई...
ख्वाहिशें कई..रंगीनियाँ कई..
रंगों का क्या था.......
जिस ने जैसा चाहा, भर दिया...
संवर गया तो सजा लिया गया...
जो ना संवरा तो रात गई...बात गई...
जिसने जैसा चाहा वैसा संवारा मुझे, ....
उनके मुताबिक ढलता रहा तो कीमती था....
जिस लकीर से अपना रंग भरना चाहा ,
वो लकीर मिटा दी गई. .... |
नापसंद था तो फेंक दिया मुझे -2...
पर मैं भी कागज अब कोरा ना था,
वह बेरंग सी जिंदगी भी मुझे भा गई. .....
उड़ता रहा तितर बितर, -2....
ना किसी रंगने वाले की चाहत थी, ना बाकी थे रंगीन सपने,
ना किसी दूसरे रंग का डर था , न थे कोई अपने.....
जब तक जल ना जाऊं ,हवा के रुख से रुख मिलाऊंगा....
जी लूंगा उतने रंग ,जितने जी पाऊंगा.....
जो ना जी पाया तो क्या, .....
फिर से रात गई, बात गई... |
मैं हूं ही क्या -2...
एक बेरंग सा कागज जो कल तक कोरा था.....
में कल था, आज हूं, कल नहीं रहूंगा.....
इतना ही जिंदगी का सार है.....
जो ये इंसान समझ पाये तो बात है,...
वरना........

