रचना के विवरण हेतु पुनः पीछे जाएँ रिपोर्ट टिप्पणी/समीक्षा

माँ तुम क्या गई

मां तुम क्या गई

हमारे हिस्से की सुहानी शाम गई

कुछ शिकवे हमारे कुछ शिकायतें तुम्हारी वो सवालों की बरसात गई


अब दिखने लगी है सफेदी मुझे बालों की

काले घेरे आंखों के

तेरी जाने से हमारे बचपन और जवानी की हर याद गई

मां तुम क्या गई...


अब ना मिलेंगे हींग जीरे के पराठे

अब ना भाएंगे गट्टे के चावल

हमारी खिचड़ी से अब घी की वो धार गई

मां तुम क्या गई...


हां जलेंगे दिवाली पर दीए

होली में होगी रंगों की बरसात

पर तीज गणगौर की सब मिठास गई

मां तुम क्या गई...


वह हर बात पर डांट देना तेरा,

बिना बात ही पुचकारना तेरा

मेरी बच्चियां रटते रटते दुआओं की एक सौगात गई

मां तुम क्या गई...


अब ढूंढ़ती है वह मुझ में तुझको

मैं देखती हूं उसमें अक्स तेरा

क्यों तस्वीर में सिमट हमारी आस रह गई

मां तुम क्या गई...


टिप्पणी/समीक्षा


आपकी रेटिंग

blank-star-rating

लेफ़्ट मेन्यु