रहो तुम नदी के उस पार
रहो तुम नदी के उस पार
जहां चैतफ दूर-दूर तक बिछी है हरियाली
और इस तरफ हम इस उजाड़ पाट पर
बेसाख्ता झुलसाती तपन में पस्त और उद्विग्न
बहती रहे यह अनवरत धारा हमारे बीच
समय यों ही व्यतीत होता रहे निर्बाध
अपनी रौ में।
एक उम्मीद भर बची रहे हमारे अंतस में
जिन तक पहुंचना बेशक लगे दुर्गम
बस सपने बचे रहें
एक अतिरिक्त भाव की तरह
पलती रहे पीड़ा
हमारी स्म़ृतियों में घुले असंख्य घावों की तरह !!