मैं और मेरी कविताएं
निमिषा सिंघल जीवन परिचय
नाम निमिषा सिंघल
शिक्षा : एमएससी,बी.एड,एम. फिल,
प्रवीण (शास्त्रीय संगीत)
जन्मतिथि: 15/08/76
जन्म स्थान: बुलंदशहर (उत्तर प्रदेश) भारत
निवास: 46, लाजपत कुंज-1, सिविल लाइंस, चर्च रोड,आगरा-282002
ईमेल:
nimishasinghal197600@gmail.com
दूरभाष: 8218833030
प्रकाशन : एकल काव्य संग्रह "जब नाराज होगी प्रकृति"सर्वप्रिय प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित,
बहुमत, प्रकृति दर्शन में रचनाएं प्रकाशित
सावन. इन, अमर उजाला, डीएलए,मेरी सहेली,
साहित्यनामा,
गुरुकुल पब्लिकेशन हैदराबाद की संकल्प पत्रिका,काव्य स्पंदन चित्रगुप्त प्रकाशन नई दिल्ली, नर्मदा प्रकाशन लखनऊ, मधुशाला प्रकाशन भरतपुर, अभ्यांतर त्रैमासिक पत्रिका, प्रभाती के सांझा काव्य संस्करण, झारखंड,छत्तीसगढ़ मित्र पत्रिका में आलेख व कविताएं, ज्ञान सवेरा में व्यंग प्रकाशित।
सम्मान /पुरस्कार
1. "सर्वश्रेष्ठ सदस्य" एवं "सर्वश्रेष्ठ कवि" सम्मान, सावन.इन
2.अमृता प्रीतम स्मृति कवयित्री सम्मान 2020
3.बागेश्वरी साहित्य सम्मान 2020
4.सुमित्रानंदन पंत स्मृति सम्मान 2020
5.साहित्य सागर काव्यधारा सम्मान 2020
6.साहित्यनामा तरंगिनि की विभिन्न प्रतियोगिताओं में विजेता।
7. सर्वप्रिय प्रकाशन एवं मुद्रणालय सरकारी समिति रायपुर छत्तीसगढ़ की विशेष आमंत्रित सदस्य व प्रकाशन समिति की सदस्य नियुक्त।
8. चिंतन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था दिल्ली के साहित्यिक कार्यक्रमों में प्रतिभागिता।
9. मराठी साहित्य वार्ता, साहित्य सागर, कल्पतरु एवं सहित्योदय, परिवर्तन साहित्यिक मंच "आगाज ए सुखन", अनुगूंज के फेसबुक पेज से रचनाओं का लाइव प्रस्तुतीकरण दे चुकी हैं।
10.साहित्य टीवी के यूट्यूब चैनल पर कविता पाठ व प्रसिद्ध लेखक व लेखिकाओं के जीवन परिचय विडियो,
मराठी साहित्य वार्ता के अंतरराष्ट्रीय कवि सम्मेलन ( 15 अगस्त 2020)में विशेष आमंत्रित कवियत्री के रूप में प्रस्तुति।
11. एशियन लिटरेरी सोसायटी, शॉपीजन, कलम के दीवाने, हिमांतर,कविता भारती, छत्तीसगढ़ मित्र , हिंदी रक्षक डॉट कॉम, हिंदी प्याला डॉट कॉम, साहित्यिकी, साहित्य रंग, मौनगूज,दी अंडर लाइन के वेबपोर्टल पर रचनाए, स्टोरी मिरर पर कविताएं और लघु कथा ट्विटर गूंज पर, हिन्दीनामा, हिंदी कविता, हमारी आवाज के फेसबुक पटल पर रचनाएं प्रकाशित,
स्त्री दर्पण के साहित्यिक कार्यक्रमों में लगातार सहभागिता,बाल कोंपल बाल साहित्य पर रचनाएं प्रकाशित।
12.ताज महोत्सव आगरा में 2016 और 2018 में भजन व ग़ज़ल प्रस्तुति,गायन व तेल चित्र में कई पुरस्कार अर्जित।
रचनाए:
1. ---ब्लैक होल--
--------------------
यक्ष प्रश्न दागती रही मैं तुम पर..
उत्तर ना देने के कारण
बदलते जा रहे थे पत्थर में तुम .....
धीरे-धीरे......
आख़िरी तीर भी तरकश का चलाया मैंने
बार बार कोशिश की,
संकल्प की तरह प्रश्न को उठाया मैंने
फिर भी असफल ही रही
किसे पता था तुम्हारा मौन
साबित होगा एक दिन ब्लैक हॉल
कि बंद भी कर लोगे तुम
अपने हृदय के सभी रास्ते
तब भी समा जाऊँगी तुम में मैं
किसी क्षुद्र ग्रह की तरह।
2. आखिरी पेड़
---------------
अब नहीं रहता उस गांव में कोई
पनिहारिन गाती गुनगुनाती जहां
लाती थी पानी कुएं से।
घरों से उठता था धुआं चूल्हे का
आती थी सोंधी सी गंध रोटी और साग की,
नासिका में आज भी महकती है भीतर गहरे कही।
रामदीन काका की नीम तले खटिया
और झूलों पर पेंग बढ़ाते झोटे लेते लड़कियों के ऊचे होते जाते गीतों के स्वर।
गिलहरियों, चिड़ियों की चहचहाहट और जानवरों को हांकने का शोर।
पेड़ों पर निशाना लगाती गुलेले ओर बाग़ में बच्चों का शोर।
खो गई पगडंडियां
खो गई पतंगे
खो गया उस गांव का को आखिरी पेड़।
कटते समय आखिरी बार शिकायत भरी डबडबाई आंखों से देखा था उन ललचाई आंखों को।
जिन्होंने बीज की जगह बोए थे इमारतों के जंगल।
अब ढूंढते हैं छाव उस आखिरी पेड़ की।
3. मजदूर
-------
मुट्ठी में बंद उष्णता, सपने, एहसास लिए,
खुली आंखों से देखता है कोई .....
क्षितिज के उस पार।
बंद आंखों से रचता है इंद्रधनुषी ख्वाबों का संसार।
झाड़ता है सपनों पर उग आए कैक्टस और बबूल....
रोपता है सुंदर फूलों के पौधे बार -बार।
उगता है रोज सुबह नई कोपल सा ...
करता है सूर्य की पहली किरण का इंतजार।
मासूम हंसी से मुस्कुराहट लेकर उधार,
चल पड़ता है ख्वाबों का थैला लिए... हंसी लौटाने का वादा कर हर बार।
श्रम, पसीने के सिक्के बाजार में चला
खरीद लेता है कुछ अरमान...
लौटाने मासूम चेहरों पर हंसी,मुस्कान।
कठोर धरती पर गिरते अरमानों को...
आंखों की कोरों में छुपा,
चिपका लेता है चेहरे पर नकली हंसी,
पर अतृप्त आंखें बता देती है उसके दिल का हाल।
4. संक्रमण
----------
पांच बोसे मांगे थे एक दिन तुमसे,
सांची के स्तूप से वहीं रह गए... ठीक उसी स्थान पर।
प्रेमासिक्त मन ..और बोले गए शब्द ....भी घूमते रहे.. वहीं सौरमंडल में चक्कर लगाते ग्रहों की तरह।
तुम और हम पार कर आए थे वो रास्ते....
पर प्रेम सूक्ष्मजीवी सा गहरी पेठ बनाए छिपा रहा ...
मन के किसी कोने में।
तुम्हारा देखना और बस देखते जाना...
याद आ जाता अक्सर.. और फैलने लगता संक्रमण.....
एकांत पा।
बेचैनी और बीमारी बढ़ते ही ..बनने लगती हैं एंटीबॉडीज ।
फिर भी काम न चला तो लेना पड़ा ब्लड प्लाजमा यादों का और
एंटीबॉयोटिक समझ खा ली स्याही,
लेखनी बन गई डॉक्टर स्टेथोस्कॉप भावनाएं पढ़ने लगा
लिख दिया डॉक्टर के पर्चे सा
बीमार का हाल ।
5.
संगिनी
--------
संगिनी, गृह स्वामिनी वह वामांगिनी।
आर्य पग धरे वह साथ हो,सुखद अनुभूति का अहसास हो।
वह स्मिता वह रागिनी वह साध्वी, धर्मचारिणी।
निश्छल हंसी उज्जवल छवि सुरम्यता बेमिसाल हो।
शीतल भी हो गरिमामयी, कल- कल ध्वनि सी निनादनी।
निरन्न उपवास धारिणी, सावित्री सी आनंद दायिनी।
अतुल्य जो चंचल भी हो, प्राण प्रिय ऐसी सुहासिनी।
6.
मेरे जाने के बाद
——————–
बिखेर दिया है खुद को
इस कदर मैंने …..
कि ….
मैं ना मिल पाऊं गर तुम्हे …
तो ढूंढ लेना मुझे ….
मेरे गीतों और रचनाओं में।
तुम पर प्रेम छलकाती….
कभी नाराज़गी दिखाती….
किसी ना किसी रूप में मिल ही जाऊंगी।
कभी उदासी घेर ले
तो शायद मै गुदगुदा दू रचनाओं में छुप कर हंसा दू तुम्हे!
बेशक तुम गढ़ लेना कुछ किस्से मनचाहे…..
पर पढ़ लेना मेरा प्रेम जिससे तुम खुद को सरोबोर पाओगे।
भीग जाना चाहो गर…
अचानक हुई प्रेम वर्षा से
तो ढूंढ लेना मुझे फिर
मेरी रचनाओं में।
कभी अधूरी सी कोई कहानी सी मै…. कभी पूर्ण पाओगे,
रचनाएं पढ़ कर जब गले लगाओगे।
मै हमेशा काव्य सुगंध बन महकती रहूंगी
तुम्हारे आसपास..
अपनी रचनाओं में
रजनीगंधा के पुष्प की तरह
तुम जब भी मेरी महक से मदहोश होना चाहो…
तो फिर ढूंढ लेना मुझे!
मै तुम्हे फिर वहीं मिलूंगी..
अपने गीतों और रचनाओं मै
गाती गुनगुनाती
तुम पर प्यार लुटाती।
7. --- नाराज़गी---
--------------------
जब नाराज़ हो जाती हो
तुम..
बैचेन हो जाता हूं मै।
तारों बिन..
उदास आसमान सा।
जैसे सूर्य की लालिमा पर मंडराया हो काला बादल।
जैसे काली कजरारी आंखों से बह निकला हो काजल।
जैसे भरभरा के फट पड़ा हो बादल..।
वह प्यारी सुबकियां
जान कर
मुझे सुनाते वक्त,
जैसे भर गया हो समुंद्र
तुम्हारी आंखों में..
तैरने लगे हों सीप
निकल पड़े हो बेशकीमती सफेद मोती
और फिर बह निकले हो तुम्हारी आंखों से।
चुपचाप कनखियों से मुझे निगाह बचा कर देखना फिर..
नाराजगी से पीठ फेर कर बालों को इस अंदाज़ में झटकना की मेरे चेहरे से टकरा जाए।
फिर मेरा बनावटी क्रोध दिखाना..
जैसे तुम्हारे जलते हृदय को मलहम मिल गया हो।
चेहरा पढ़ने की कला में माहिर हो तुम।
मेरी हंसी देखी तो
त्योरियां चढ़ा ली
और देखा क्रोध
तो खुद ही सिमट कर बाहों में समा गई।
मुझे पसंद है तुम्हारा
रूठी हुई हंसी हंसना..
और उससे भी अधिक पसंद है तुम्हारा शिकायती आंखों से मुझे देखना और मुझ में समा जाना।
8.
किसी रोज कहूंगी
----------------------
किसी रोज कहूंगी तुमसे
तुम्हारा आना पतझड़ के बाद बसंत जैसा था...।
उपेक्षित कोंपले मुरझा कर जीने की ललक खो रही थी
अचानक जी उठी प्रेम अमृत पा।
पत्थर में प्राण जैसे स्थापित हो गए तुम मुझसे..
सूखे बांस से फूट पड़ती हैं कोंपले जिस प्रकार
मन में जाग उठी उमंगे फिर एक बार।
निहारने लगी दर्पण में मैं खुद को फिर एक बार,
समा गए तुम इन आंखों में स्वप्न हो गए अंगीकार।
सूरज सी मुस्कान लिये जीवन में आए
खोल हृदय द्वार।
मीठी सी मुस्कान लिऐ अंधेरे सारे मिटा गए।
जीवन अभी बाकी है यह संदेश जता गए।
धरती पर बादलों की तरह बरस कर शस्य श्यामला बना गए।
जीवन परिवर्तन लाता है आशा का दीप जला गये।
अपनी स्नेहिल आंखों से...
मुझ को मुझ से फिर मिला गए।
-------------
9. दस्तावेज
-----------
दबे पांव तृष्णायें घेर लेती है एकांत पा,
विचारों की बंदिनी बन असहाय हो जाती है चेतना।
अवचेतन मन घुमड़ने लगता है बादल बन,
लहलहाने लगती है विचारों की फसल।
ऋतु परिवर्तित हो..बसंती हवा से भिगोने लगती है मन।
मन के किसी कोने में बहुमूल्य दस्तावेजों के पन्ने खुलने लगते हैं एक- एक कर,
संवेदनाएं घेर लेती हैं।
धावों से रिसने लगता है लहू।
फिर शब्दों का मरहम शांत कर देता है मन,
समुंद्र की तलहटी में जाकर सुकून ढूंढता सा मन... फिर सतह
पर तैरने लगता है।
अद्भुत है यह प्रयास... डूबने और तैरने का।
साहसी, विद्रोही मन, छलनी देह को बांसुरी बना बजने लगता है,
आर्मी बैंड की धुन "वीर तुम बढ़े चलो" की तरह।
लेखनी हथियार बन सिर कलम करने लग जाती है...
शोषित, पीड़ित, अपराध बोध से ग्रसित आत्मा का।
सिर कलम होते ही परिंदे सी रुह,
बाहर निकल हंसने लगती है मुझ पर,
हथौड़े की चोट सी वह हंसी चटकाने लगती है अंतर्मन।
आंखे तरेर जताने लगती है घाव,
लेखनी पढ़ ही लेती है उन घावों को और रच देती है काव्य...
दस्तावेजों में संग्रह करने के लिए।
10. रेत
----
रेत पी जाता है नेत्रों से छलका दुख,
ऊपर से बेअसर...
भीतर नम।
रेत सी कहीं तुम भी तो नहीं?
छुपा लो!
अच्छा है...छुपाना दुख।
पर नमी बरकरार रहे!
ताकि तेज आंधियां
उड़ा न लें जाये तुम्हें...
या ढह न जाओ तुम
रेत के टिब्बे सी।
11. स्त्रियां
-------
सुनो!
कुछ स्त्रियों ने रोपा है बीज.... हंसी का,
उदासी की खाद में अश्कों की नमी मिला...
गाड़ दिया है धरती में सदा के लिए।
खुलकर हंसने के लिए उन्होंने .....
चुना है यह रास्ता....
क्योंकि रोना मना है उन्हें।
उनके उदास चेहरे से उदास हो जाता है घर, घर की दीवारें तक।
चुप्पी ,मौन जो असहनीय हो जाता है भारी कर जाता है मन....।
इसलिए रो नहीं सकती कुछ स्त्रियां।
कुछ स्त्रियों ने रोंपे हैं कांटे भी...
जो चुभते रहते हैं हर किसी को,
घाव दे जाते हैं अक्सर जो....
पर दुखी नहीं है ऐसी स्त्रियां..
अट्ठाहास कर छीन लेती चैन और सुकून सभी का।
तीखे तंज, जहर बुझे शब्दों की बौछार... यही है इनका हथियार।
कुछ मूर्ति सदृश्य!
परिस्थितियों ने मूक कर दिया है जिन्हें..
नहीं दिखाना चाहती जो मन के घाव.... छुपाये रखती हैं सबसे।
स्वचालित कठपुतली बन घूमती रहती हैं घर में . . यहां वहां.. काम निपटाते रोबोट की तरह।
ऐसी स्त्रियों में संवेदनाएं है नहीं
या मर गई है?
किसी हद तक!
कुछ स्त्रियां काठ की तरह होती है,
बाहर से शांत अंदर से सुलगती चिंता जैसी।
पहले खुद जलती हैं
जब असहनीय हो जाती है जलन. .
तो आग बन बरस उठती हैं।
जैसे अंगीठी में कोयले सुलगते -सुलगते....
धीरे-धीरे आग पकड़ते हैं।
फिर इस कदर आग
कि सिर्फ एक तंज ....
और धधकते ज्वालामुखी की तरह उलट देती हैं लावा बाहर ।
और कुछ.....
इंद्रधनुषी रंग आंखों में समाए...
बुनती रहती हैं ताना-बाना, अपने प्रयासों और उड़ानों का।
अपनी उदासियों को बदल देती है रंगों में,
हार को जीत मे,
ऐसी स्त्रियां आखिर चुन ही लेती हैं एकदिनअपना पसंदीदा आसमां।
12. अपेक्षा/उपेक्षा
-------------------
अपेक्षाएं पांव फैलाती हैं...
जमाती हैं अधिकार,
दुखों की जननी का हैं एक अनोखा.... संसार।
जब नहीं प्राप्त कर पाती सम्मान,
बढ़ जाता है क्रोध...
आरम्पार,
दुख कहकर नहीं आता..
बस आ जाता है पांव पसार।
उलझी हुई रस्सी सी अपेक्षाएं खुद में उलझ..
सिरा गुमा देती हैं।
भरी नहीं इच्छाओं की गगरी....
तो मुंह को आने लगता है दम।
भरने लगी गगरी...
उपेक्षाओं के पत्थरों से,
जल्दी ही भर भी गईं..
पर रिक्तता बाकी रही...।
मन का भी हाल कुछ ऐसा ही है
स्नेह की नम मिट्टी.. पूर्णता बनाए रखती हैं,
उपेक्षाएं रिक्त स्थान छोड़ जाती हैं।
13.
बूंद
----
बूंद हूं मैं एक खारी,
छलकी..
हो चक्षु से भारी,
बहकी बन सुख- दुख की मारी,
बूंद हूं मैं एक खारी..।
मन, हृदय सब गम से भारी...
कर गया आंखों को हारी,
बोझ सारा मैं समेटे,
चल पड़ी..
हो मैं दीवानी।
बूंद हूं मैं एक खारी...।
सुख अधिक छलका दे मुझको...
दुख अधिक कर देता भारी,
प्रेम में भरती हृदय को,
संताप में कर देती खाली।
बूंद हूं मैं एक खारी..
14. संगीत
--------
सरहदों में बंध जाए वह संगीत ही क्या!
भाषाओं की बेड़ियां जकड़ ले वो गीत ही क्या!
संगीत किसी संस्कृति, सभ्यता में कैद हो जाए...
असंभव है।
कौन बांध पाया है नदियों की कल -कल को?
कौन रोक पाया है चिड़ियों के कलरव को?
हवा की गुदगुदी से पत्तों की हंसी...
भला कौन छीन पाया है!
संगीत साक्षात परब्रह्म है
साधन है परमानंद का..।
पुराणों, श्रुतियों से
बहता -बहता माधुर्य रस का पान कराता..
किसी न किसी रूप में जन - जन तक पहुंच ही जाता हैं।
संगीत की अपनी ही भाषा हैं
शब्द समझ में न भी आए
तब भी उसकी मिठास मिश्री सी कानों में घुल... गुनगुनाने पर मजबूर कर देती है ।
झांझ,सुषिर, फूंक वाद्य व अन्य वाद्य यंत्र झंकृत कर देते हैं ह्रदय को,
मधुर संगीत कानों में नाद बन सुनाई देता है।
स्वर तो आखिर वही सात ..
ठाट बन ठाठ से जन्म देते हैं नए-नए रागों को..
अलग-अलग भाव जगाते अलंकारों से।
मोहनी विद्या है संगीत जिसमें एक अक्खड़ स्वर"प" भी है ..
कितने भी स्वर इधर से उधर बह जाए मगर "प" नहीं हिलेगा।
कभी शुद्ध कभी तीव्र में बदलकर बाकी स्वर नई नयी- नयी स्वर लहरियों को जन्म देते रहते हैं।
इतनी खूबसूरती है संगीत में शायद ही कोई इस मोहनी से बच पाया होगा।
15.
कविताएं
--------
अकेले ...
रहने नहीं देती ,
साथ चलती हैं।
निशब्द संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का....
संवाद बनती हैं।
कलम में ताकत भर, स्मृतियों की आवाज बनती है।
अंतर्मन के शोर को..
बाहर लाने के लिए एकांत बनती है।
बिना अभिव्यक्त करें खुद को...
कवि मारा जा सकता है,
उसे बचाने के लिए...
नित नया आसमान रचती हैं।
कवि की सोच को विस्तार दें,
शब्दों में पंख लगा..
उड़ान बनती है।
युद्ध और शांति के बिगुल की आवाजें लेखनी में भर
मुखर आवाज़ बनती हैं।
प्रकृति के आंसुओं का हिसाब -किताब कर...
किताब बनती हैं।
अंतर्मन के ..
घाव़ो को भर
सम्मान बनती हैं।
दो बिछड़े प्रेमियों के बीच सामंजस्य बिठा
पुल का निर्माण करती हैं।
कविताएं...
बेहद जरूरी है एक कवि को बचाने के लिए।
16.पुनर्स्थापना
-------------
गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक और राजा राममोहन राय नहीं जानते होंगे की कुप्रथा पर रोक लगाने के बाद भी....
वे नहीं रोक पायेंगे उन्हे।
बस चोला बदल पुनर्स्थापित कर दी जाएंगी अलग-अलग सदी के आकाओं के हिसाब से।
स्त्रियां अनवांटेड और मोस्ट वांटेड के बीच झूला झूलती रह जायेंगी।
आकांक्षाएं बाज के पंखों सी अनंत आकाश की गोद में फैलती सिकुड़ती रहेंगी।
ढोल नगाड़ों जनित कथित उल्लासित शोर,
बेड़ी पहना स्वागत करता रहेगा।
संरक्षण की चाहत में स्वर लिपियां खुद ही चुन लेती हैं बेड़ियां और
मौन हो जाती हैं।
घूमती रहती हैं बेबस वैशाली के खंडहरों में।
सत्य, झुर्रियों के जंगल में लहूलुहान,आदम स्मृतियों सा विस्मृत उलझा रहता है अपनी खोज में।
लचीली हो चुकी उम्र नियंत्रण पा लेती है खुद पर,
मजबूत होते पंजों की तरह।
कुछ कर गुजरने की ललक और शक्तियों का आह्वाहन बचाए रखता है अस्तित्व को।
अंदर गहरे कुएं में आत्मा का सूफी नृत्य परमानंद की तरह सुख संतोष देता है।
झांझर सी बजती संवेदनाएं आखिर तानाशाह बन जाती है।
बजने लगते हैं फिर से ढोल नगाड़े अपने पसंदीदा।
विभूषित हो जाती है जब कोई नार....
आत्मिक शक्तियों के आवरण से और सवार हो जाता है जुनून...तब
रहस्यमयी आत्मा दिखाने लग जाती है रास्ते रोशनी भरे .... स्वयं का पुनर्स्थापना दिवस मना।
17.
आख़िरी गीत
---------------------
ये आख़िरी गीत है मुहब्बत का..
थोड़ा गुनगुना लूँ.. तो चलूँ !
अंधेरा छा रहा है.. दीया लड़खड़ा रहा ..
जरा झलक मिल जाए तुम्हारी तो चलूँ !
दृगों के कोर तक जब छलक आए हो---
मोती बन आँख से ढलक आओ तो चलूँ !
धड़कनें तेज हैं कुछ घबराया-सा मन
थोड़ा थम के चैन पा लूं , तो चलूँ।
अब के बिछड़े फिर मिलें कि न मिल सकें ..
बस आँख भर देख लूँ तुमको, सुकूं से चलूँ !
आखिरी साँस ज्यों रूह की, इस देह में अटकी ..
तुम जिन्दगी सहेजने का वास्ता दे सको, तो चलूँ !!
यही इक आखिरी गीत है मुहब्बत का तुम्हारे साथ जरा गुनगुना लूँ, तो चलूँ।
18.कविताएं और मै
__________________
कविताओं ने छुपा लिया है ..
जब से मुझे अपने आंचल में...
सारा अवसाद जाता रहा..
जैसे आसमान तले चिल्लाकर
निकाल दी जाती है भड़ास
गुम हो जाती है आवाज़ हवा के साथ
जैसे ओढ़ लिया हो ..
स्वयं ही ..
कविताओं ने..
मेरे भीतर का कोलाहल।
जैसे समुद्र छिपा लेता है सारे शोर..
नदियों , जीव -जंतुओं के..
कविताएं भी मेरे लिए समुंद्र से कम न थी!
मैं भी कविता होना चाहती हूं।
19.
मै और तुम
————-
अतीत के फफोले,
मरहम तुम।
अध्याय दुख के
सहारा तुम।
तपस्या उम्रभर की,
वरदान तुम।
बैचेनिया इस दिल की,
राहत तुम।
दिल में फैली स्याही,
लेखनी तुम।
अक्षुष्ण मौन इस दिल में,
धड़कनों का कोलाहल तुम।
रुदन धड़कनों का,
मुस्कुराहट तुम।
लौह भस्म सा ये दिल,
चुम्बक तुम।
पिंजर बद्घ अनुराग
उन्माद तुम।
बहती धारा सी में,
सागर तुम।
20.
एक कवि का जाना
••••••••••••••••
एक कवि अपनी दूर दृष्टि और लेखनी से,
पूरे संसार का दुख सुख समेट
बिखेर देता है
कीमती मोतियों सी सुंदरता कागजों पर।
इनकी चमक से मिलती है;
कुछ भटके पथिकों को राहें,
कुछ दुखती रगो को शांति,
किसी उल्लासित मन को प्रेम,
किसी अधूरे से हृदय को अपनी सी कहानी,
किसी दुखी मन को संतोष,
किसी अधीर मन को धैर्य।
सभी को उनके हिस्से का
कुछ ना कुछ देकर,
विदा हो जाता है एक कवि
इस संसार से,
चमकता सितारा बन
