स्याही
मेरे अंदर कहीं गहराई में बुझ चुकी है स्याही की नदी
जीस में हजारों लाखों मोहब्बत भरे लफ्ज़ जीये बगैर ही मर गए
मैं उन फूल से भी नाज़ुक लफ़्ज़ों को अपने जीस्मानी कागज़ पे जिंदगी देना चाहता था
मैं चाहता था कि तुम उन्हें पढकर खूबसूरत जवानी दो
मगर तुमने मेरी आवाज़ से रिश्ता तोड़ दिया
और मैंने मोहब्बत के खयालों से मुंह मोड़ लिया
कभी उन खयालों को उस नदी की नर्म स्याही से भीगने नहीं दिया
मेरे नाकाम खयालों ने दम तोड़ दिया और वो स्याही सुख गई
मैंने जो तुम्हारी मोहब्बत से लैस ख़त थे वो भी सब उस स्याही की नदी में डाल दिए और अपनी आहों की आग से जला डाले
ताकि फिर कोई हंसी का अफाट दरिया भी उगा ले मेरे लिए तो मैं एक बूंद भी न भीग पाऊं...
