इंसान
कुछ होश नहीं रहता कुछ ध्यान नहीं रहता,
इंसान मुहब्बत मे इंसान नहीं रहता ।
मौत बदकिस्मत हो जाती है,आते आते,
चाहत की गलियों में काफिरों का मान नहीं रहता।
जब आ जाती दहलीज पर वो मौत दर्द के साथ,
तब बाकी जीने का कोई सामान नहीं रहता।
पहले होती कसमें, वादे भी पर झूठे सब,
अंत समय इसमें कोई बेईमान नहीं रहता।
सब हो जाते अपने तब ये, दुख दर्द अवसाद
पीड़ाओं का नाता भी अंजान नहीं रहता।
एक प्रेयसी के पल्लू में बंधकर रह जाता अभिमान
तब दिल और किसी किस्मत की जान नहीं रहता।
जैसे इश्क आरंभ में मुकुट शीश का होता
अंत समय वह आसन का भी मान नहीं रहता।
कुछ होश नहीं रहता,कुछ ध्यान नहीं रहता
इंसान मुहब्बत में इंसान नहीं रहता।
