शहरीकरण
आंगन भूखे हैं नंगे पांवों के
खेत बली चढ़ रहे हैं गांवों के
हर हरीयाली पर इमारत ने नज़र बीगाडी है
लकड़ी को काटने के लिए लकड़ी हाथा बने अजब नार कुल्हाड़ी है
अबोल जीवों के घर छीन लिए
वृद्धों के कौर गीन लिए
रसकस वाला आहार नकारकर विदेशी भोज अपनाया है
हमने अपनी देह को नीतनये रोगों का घर बनाया है
धरती में दुध उतरता नहीं रसहिन धड़क रही
डामर और सीमेंट के अधीन होकर भड़क रही
आकाश का अमृत बह रहा नालों में
सुखा पनप रहा है कृत्रिम खालों में
अतिक्रमण चरम पर है मानव का
सफ़र व्यर्थ न जाने दो दानव से मानव का
कुछ न होगा हम ये नियम लें वो नियम लें
बदलाव जरूर आएगा हम व्रत अगर बस संयम लें
