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हिन्दी गजल

       देखा है

विकास के पीछे हादसों का मंजर देखा है.

शिलान्यास के पाषाणों का बंजर देखा है.

काल का आना तय है जिंदगी में ,

उस पर बहानों का बवंडर देखा है.

ख्वाब देखने की मनाही भला किसे है, 

शेखचिल्ली के सपनों का खंडहर देखा है.

वो गहराई जहां मिलती है  ऊचाईयांँ, 

 कभी माँ-बाप के आँखों का समंदर देखा है.

बड़ी बदचलन हुई हवा तालीमगाह की, 

कलम वाले हाथों का खंजर देखा है.

औरों से मदद की चाह में  "निर्मल"

 ख्वाहिशों का अस्थि पंजर देखा है.

         राकेश गुप्ता  "निर्मल"


        मंदिर-मस्जिद कहाँ

विद्या का विनाश करे,ऐसा बम नहीं.

शिक्षा से होगा ,जग में तम नहीं . 

जोअनपढ़ हैं उन से पूछिए साहब, 

अशिक्षा से दूजा कोई गम नहीं .

शिक्षा की धूप पहन के देख ,

मंजिल में पड़ते कैसे कदम नहीं .   

विद्यालय से बड़े,मंदिर-मस्जिद कहाँ, 

और किताबों जैसा कोई हमदम नहीं.

उसका आदर्श अनपढ़ असभ्य है ,

जहाँ मैं की जगह हम नहीं .

जो वेदना ना पढ़ सके "निर्मल"

 वो शिक्षित, अनपढ़ से कम नहीं.

          राकेश गुप्त निर्मल



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