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सफ़र-ए-ग़म

पा पा कर अक़्सर खोता रहा हूँ मैं,

टूटने वाले ख़्वाब सँजोता रहा हूँ मैं।


यूँतो ज़िंदगी मे कोई ग़म न था कभी,

एक तन्हाई का बोझ ढोता रहा हूँ मैं।


बहुत हुजूम थे कभी मेरे साथ मे पर,

हज़ारों में भी तन्हा होता रहा हूँ मैं।

 

सामने वाले को अक़्सर हंसाता रहा,

पर छिपकर अक़्सर रोता रहा हूँ मैं।


मोहोब्बत दोस्ती अपने सब ही तो,

ज़िंदगी में अक्सर खोता रहा हूँ मैं।

Rk.

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