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मकर संक्रांति

 


    " भीष्म पितामह की

      उतरायण प्रतीक्षा "


     ( रूप घणाक्षरी छंद )

     (   वर्ण : 8-8-8-8   )

     


     अधर्म  पर   धर्म  की,

     स्थापना हेतु हुआ जो।

     महाभारत   का   रण,

     निश्चित  था अनुमान।।


     कौरव-पांडवों  में  था,

     सतत   जो    प्रतिद्वंद।

     कुरुक्षेत्र   बना    दिया,

     समर  का  ही  मैदान।।


     कट-मर  रही  ज्यों वो,

     चहुँ   ओर   गिर  रही।

     पांडवों की थी वो सेना,

     युद्ध  में  तब   नादान।।


    भीष्म पितामह का था,

     जंग  में  यूँ  दिख  रहा।

     आज  विचित्र   ढंग  से,

     रूप    रौद्र   अनजान।।


     देखा  तो  न  था  पहले,

     किसी ने भी कहीं कभी।

     क्यों  हुआ  फिर उनका,

     व्यवहार       गतिमान।।


    श्रीकृष्ण के मन में जो,

     युक्ति  एक  तब  आई।

     पांडवों    के    हितकर,

     बन   गए  वो   सुजान।।


     पांडव  गए  जो  पास,

     जानने   बस  निमित्त।

     पूछ  लिया  उपाय भी,

     युद्ध में हो क्रियावान।।


     शिखंडी को लाना तुम,

     युद्धभूमि   में   समक्ष।

     नहीं   करुँगा  वार   मैं,

     न होगा कोई  बेजान।।


     पूर्व  जन्म  में शिखंडी,

     थी   एक  राजकुमारी।

     अंबा  नाम  से  जानते,

     करते   सभी  सम्मान।।


     भीष्म  ने  किया   उसका,

     बहनों     संग       हरण।

     अंबिका   व    अंबालिका,

     को भी सुनाया व्याख्यान।।


     अनुज        विचित्रवीर्य ,

     संग  उन  तीनों  का ही।

     पाणिग्रहण  को  किया,

     हृदय   से    आहवान।।


     अंबा   ने  तो   तुरंत  ही,

      कर   दिया  था  आगाह।

      प्रेमी  सिवा   कहीं  नहीं,

      विवाह    का    अरमान।।


      हो    हताश    यूँ    उसने,

      की   थी   एक   फरियाद।

      कर   दिया    मुक्त    उसे,

      भीष्म   ने   देकर   ध्यान।।


      पर  प्रेमी  ने  अंबा  को,

      ठहरा    दिया    अयुक्त।

      विचित्रवीर्य  ने  भी  तो,

      नहीं  दिया  उसे  मान।।


      भीष्म  भी  हो  गए  तब,

       हालात   से    असहाय।

       क्षमा-याचना   में   खड़े,

       हाथ  जोड़ ज्यों  बेजान।।


      अंबा  की  जो  आपबीती,

       परशुराम     ने      सुनी।

       किया भीष्म को अंबा से,

       विवाह   का   आहवान।।


      परशुराम     ने     किया,

      भीष्म  से  भीषण  युद्ध।

       परास्त   हुए   थे    तब,

       निराश   अंबा  गुंजान।।


      अंत  में  शिव  को  जब,

       प्रसन्न   किया  तप  से।

       अंबा ने था मॉंग  लिया,

       तब    एक     वरदान।।


      शिखंडी  रूप  में  जन्मी,

      धरा    पर    एक    बार।

      उसके   ही   हाथों   पाएँ,

      मृत्यु  तो  भीष्म  नादान।।


      शिखंडी  को  पांडवों  ने,

      खड़ा  किया जो  समक्ष।

      छोड़   दिए   सारे   शस्त्र,

      खड़े   रहे   हो   अयान।।


      अर्जुन    ने    कर     डाली,

      बाणों की  जो  ऐसी  वर्षा।

      घायल      हो      पितामह,

      गिर   पड़े   ज्यों   बेजान।।


      श्रीकृष्ण  की  युक्ति  ने तो,

      मोड़ा   रुख   समर    का।

      अठावन      दिन      बनी,

       बाणों  की  शैय्या  महान।।


      करते    रहे    भीष्म    तो,

      कर्मों  की   यूँही   समीक्षा।

      पांडवों   को  है  यूँ  दिया,

      अनमोल    नीति    ज्ञान।। 


       मोक्ष  प्राप्ति  हेतु की थी,

       उतरायण         प्रतीक्षा।

       इच्छा  मृत्यु  के  चक्र  से,

       भीष्म    हुए   अंतर्ध्यान।।



    - स्वरचित एवं मौलिक रचना 

       पूजा सूद डोगर 

        शिमला 

        हिमाचल प्रदेश 



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