दो जून की रोटी
दो जून की की रोटी
चिलचिलाती धूप में सफर करना पड़ता
पसीने से भी तर बतर होना पड़ता है
अपनों से भी काफी दूर होना पड़ता है
सारे शहर की खाक छानने के बाद ही
तब कहीं मिलती है में सकूं की रोटी
काफी मुश्किल से आती है दो जून की रोटी
कवि भरत मिश्रा
