रचना के विवरण हेतु पुनः पीछे जाएँ रिपोर्ट टिप्पणी/समीक्षा

सांस

   कभी कभी हम इतने अनजान इतने नादान से होकर जीते तक हैं कि उम्र तो हो जाती है लेकिन बढ़ती उम्र वाली परिपक्वता नहीं आई होती है। उस वक्त तक हम खुद को भी नहीं समझ पाए होते हैं जबकि ज़िंदगी से केवल यही शिकायत होती है कि कोई हमें समझ नहीं पाया। मुझमें भी यह कमी थी। मैं भी, मुझे न समझ पाने की शिकायत आस पास के लोगों से करती रही।और खुद को लोगों से अलग करती गई। नतीजा दोस्त, परिवार,रिश्ते नातेदार सबको खुद से दूर कर दिया। खुश तो अब भी नहीं थी फिर खुद को समझने की कोशिश करने लगी, तब समझा की खुद को जानना और समझना हम औरतों को सिखाया ही नहीं गया। हम तो परिवार की जरूरतें पूरी करने और जिम्मेदारी निभाने में ही लगी रहती हैं। खैर इस बात पर किसी और को दोष न देते हुवे मैने स्वीकार किया खुद को अपनी कमियों के साथ। 
            और अब उस सफर के लिए निकल पड़ी हु जिसमें थोड़ी जिम्मेदारी भी है लेकिन उसके साथ खुद को समझने और आत्मज्ञान के साथ दुनिया को समझने में लगा दिया। अब महसूस कर पा रही हूं कि मैं भी सांस ले रही हूं जीवित हूँ। हा मुझमें भी प्राण हैं मैं सिर्फ कठपुतली नहीं हु। 

टिप्पणी/समीक्षा


आपकी रेटिंग

blank-star-rating

लेफ़्ट मेन्यु