जीने की राह
मेरे उम्र के जो भी होंगे और ग्रामीण परिवेश में बचपन बिता होगा वो गुड्डा गुड्डी का खेल जरूर खेले होंगे।
गुड्डे को दूल्हा बनाया जाता था और गुड्डी को दुल्हन।हम सभी 8वर्ष से12 से तेरह वर्ष तक के लडके लड़कियां उसमे शामिल होते थे।हम लडके लकड़ी तोड़कर लाते थे और लडकिया मिट्टी से चूल्हा और महुवा या निम के पेड़ के पास साफ़ करके जगह को गोबर से लीपती थी और चूल्हे पर पूड़ी और आलू की सुखी तरकारी,पिसान का हलुवा बनाती थी।गुड्डा गुड्डी का विवाह कराते थे।फिर लड़के पहले खाते थे फिर लड़कियां।लड़कियां ज्यादातर बहनें ही होती थी।कोई ज्ञान नहीं।विवाह होता क्या है।जब सबका विवाह खुद का सभी का हुआ सभी अपने अपने जिम्मेदारियों में ऐसा सब उलझे की बहुतो का याद भी नहीं पर भुला कोई नहीं।
बचपन सिर्फ जिंदगी एक हिस्सा नहीं है।मेरा कयास है की मनुष्य वृद्ध होने के बाद भी सभी जीवन में घटित दिन भले भूल जाये पर बचपन नहीं भूल पाता।क्योकि बचपन निर्दोष होता है।अहंकार का लेश मात्र भी प्रभाव नहीं।ईर्षा पता ही नहीं,संचय जानता ही नहीं।यह गुण सिर्फ ईश्वर में होता है शायद इसलिये शायद संसार भर के ज्ञानियों ने बचपन की तुलना ईश्वर से की है।
आज भी जब बचपन के मित्र मिलते है तो अनुभव करना चेहरे का भाव अलग हो जायेगा।हृदय में रोमांच पैदा होगा।बिना कहे गले मिलकर लिपटकर मिलता है।
लिखना और भी था पर आज के लिये इतना ही,धन्यवाद मित्रो विमलेश उर्फ बबलू।।