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अनुकूलता

"वैष्णवी!लो यह ले जाओ और प्लेट में निकाल लाओ।"

 

पंडित रामप्रकाश चतुर्वेदी जी ने दरवाजे से ही अपनी बेटी को आवाज लगाई।

"आई पापा!"वैष्णवी तत्काल ही पिता के सामने उपस्थित हो गई।

"इसमें क्या है पापा?"वैष्णवी ने उत्सुकता से पूछा।

"खुद ही देख लो।तुम्हें पसंद आयेगा।तुम्हारे लिए ही है।

"पापा!छी...छी...क्या है ये?क्या ले आए घर में।"वैष्णवी तेजी से बाथरूम की तरफ भागती है।

"क्या हुआ बेटा?इससे घृणा क्यों कर रही हो।यह तो अब तुम्हारी जिंदगी का हिस्सा होने वाला है इसलिए आदत डाल लो।"सख्ती के साथ पंडित जी ने कहा।

"आप ऐसा कैसे कर सकते हो?पंडित होकर माँस घर में ले आए!"घृणा से मुँह बनाकर वैष्णवी ने कहा।

"क्यों?यही तो तुम्हारी इच्छा है और हम तो सम्मान दे रहे हैं तुम्हारी इच्छा को।"गुस्से से वैष्णवी की माँ ने आकर कहा।

"माँ क्या कह रही हो आप! माँस खाने की इच्छा मैने कब की?"परेशान हो उसने कहा।

"जावेद से शादी करके क्या बच पाओगी इससे? अगर वह तुम्हारे प्रेम में यह सब छोड़ भी देगा तो क्या उसके सारे परिवार को उससे दूर करने का प्रयास न करोगी तुम?"दुखी होकर पंडित जी ने कहा। इतना कह वह घर से बाहर निकल गए।

कुछ देर तक माँ बेटी के बीच मौन पसर गया।

वैष्णवी ने चुपचाप वह पैकिट उठाया और बाहर फेंक दिया।

"माँ मैं समझ गई कि हर पौधे को पनपने के लिए उसी के अनुकूल वातावरण चाहिए। मुझे माफ करना माँ मैं भूल गई थी कि जैसे कमल पानी में रहता है वैसे ही कैक्टस रेत में।"

"जगह बदली तो दोनों सूख जायेंगे और मैं कभी नहीं चाहूंगी कि जावेद मुरझाए।"

 

दिव्या राकेश शर्मा।

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