कुछ सोच
आज समय ने खुद अपने भूत काल में यात्रा की सोची।वह देखना चाहता था खुद की चाल में आए परिवर्तन को।
वह लौट चला अपने चक्र को वापस मोड़ उन्नीस सौ उन्नीस में।
"बहू साड़ी को ठीक करो।हमारे जमाने में पैरों की उंगली भी नहीं दिखती थी।"एक कड़क आवाज गूंजी।वह ठिठक गया और आवाज की दिशा में नजर डाली।एक प्रौढा एक नवयौवना को हिदायत दे रही थी।
नवयौवना ने डरकर घूंघट सीने तक कस लिया और चूल्हे में आग जलाने की कोशिश करने लगी।पुरूष धोती पहने हुए था और बस मुस्कुरा रहा था।
समय यह देख विचार कर उन्नीस सौ चालीस में आ गया।
एक महिला सिर को ढके दूसरी उम्रदराज महिला के सामने अपराधी बनी खड़ी थी।
समय ने गौर किया यह उम्रदराज महिला वही घूंघट वाली नवयौवना थी।पुरूष अब पजामे में था।
"यह बेढ़ंगा लिबास यहां नहीं चलेगा।हमारे जमाने में ब्लाउज की बाँहें कलाई तक होती थी।तुरंत बदलो ये और मुँह ढक कर रहो।"
"ओह!रिवाज दोहराया जा रहा है।"समय ने मन में विचार किया और अपनी यात्रा को सन साठ पर लाकर रोका।
यहां भी वही दोहराव देख समय ने पुरूष की ओर देखा।वह पतलून पहने अखबार में मुँह छिपाए था।
वह लौटने लगा और देखने लगा।हर बार एक स्त्री दूसरी को वस्त्रों की तहजीब सिखाती मिली।
वह खिन्नता के साथ वर्तमान में लौट आया।
"तमीज नहीं कपड़े पहनने की!हमारे जमाने में मजाल है जो दुपट्टा सिर से हट जाए और तुम ये जीन्स में घूम रही हो?"सलवार कमीज पहनी एक बुजुर्ग महिला नवयुवती को डाँट रही थी।जो अभी अपने कार्य स्थल से लौटी थी।
आज भी पुरूष शाटर्स पहने मोबाइल में व्यस्त था और स्त्री वस्त्रों को निर्धारित कर रही थी।
दिव्या राकेश शर्मा।