संक्रान्ति
माई का दान
"माई बड़ उदास दिखत बाड़ू। कल से त खरमास उतर जाई।पोता के बियाह बा।कुछ तैयारी कइले बाड़ू ।
कहते कहते सियाराम आंगन में आकर बैठ ही गया।
"का तैयारी करी बबुआ"नया फैशन के बियाह बा।सब कुछ उहे लोग करी।न ठाकुर न न धोबी न गीत हरिन।
थीम बियाह होखत बा।खाली फोटू खिचाय के होड़।
अब तो सियाराम का मुंह बन गया।गांव के कई लोग जो शहर जाकर बस चुके थे।शादी ब्याह में सियाराम को बुलाते थे।
साथ में पंडित जी भी जाते।अच्छी आमदनी होती थी।वरना गांव में तो अभी भी लोग पचतकिया दस टकिया ही देते।
अब माई के उदास मुह को देखकर तो कुछ कहते भी नही बन रहा था।
इधर माई मिट्टी के बरतन में उबले दूध में जामन डालकर लाई बनाने की तैयारी कर रही थी।गुड़ का पाग तैयार हो गया था।भुने हुए तिल फरही चूड़ा सब तैयार थे।
एक एक कर लड्डू बांधती माई बड़े प्रेम से रख रही थी।जब बड़कू छोटा था तो दिन भर घूम घूम लाई खाता रहता था।लाई खाने के लालच में ठंढ में भी जल्दी नहा लेता था।
चार साल हो गए उसे गाँव आये।
सब बना कर माई जरा दुकान पर चली।
नया कतरनी चूड़ा गुड़ की भेली सब खरीद कर ले आई।बाबूजी को कुछ समझ नही आ रहा था किसके लिए यह सब तैयारी कर रही है।पर कुछ बोलना नही चाह रहे थे।
दो दो बच्चो के रहते पर्व त्यौहार में घर सुना रहता।पढ़ लिखकर अफसर बने बच्चों के पास समय भी नही था जो हर तीज त्यौहार घर आये।
सुबह माई नहा धोकर मन्दिर से भी आ गई। बाहर जाकर दिनेसर के बच्चों को आवाज लगाने लगीं।
दौड़ती दिनेसरा बहु आई।
अब का भइल माई।लइकन कुछ गलती कइले होखी।हम माफी मांगत बानी।बिन बाप के टूअर लड़िकन ।"
दिनेसरा बहु हाथ जोड़े खड़ी थी।पिछले साल दिनेसर गाड़ी के नीचे आ गया था।तब से जैसे तैसे अपना ओर बच्चों का पेट पाल रही थी।
"लड़िकन के बोल नहा धोके जल्दी आ जाए।"
दिनेसर बहु भी कुछ खास नही समझी। कुछ काम होगा तभी नहा धोकर बुला रही है माई।
कुछ देर में तीनो मूर्ति की तरह हाजिर।
नहा धोकर !
माई बड़े प्रेम से तीनों को बैठा के चूड़ा दही लाई तिल के लड्डू परोस रही है। गरमागरम आलू गोभी की सब्जी भी है।
सब खूब तृप्त होकर खाये।कुछ लाई लड्डू उनको बांधकर दे भी रही है माई।
"सुन!
रात के खिचडी खाये सब आ जईहे।"कहकर माई अपना और बाबूजी का खाना परोसने लगी।
माई के चेहरे पर आज दुख की छाया नही थी।
भारती सिंह।
