लॉकडाउन और पाँव के छाले
सुबह सुबह छोटे से घर की खाली पड़ी बहुत बड़ी सी नज़र आती छत पर घूमने का अपना अलग ही मज़ा है । सुबह की ताजा अधखिली धूप के साथ बहती ठंडी हवा और लॉकडॉउन वाला अलकसाया शरीर । सही बात भी है कि इस लॉकडॉउन में कितनी भी कसरत कर लो , कितना भी घूम लो टहल लो लेकिन आखिर में बिस्तर ही दिखाई देता है और शरीर फिर अलकसाने लगता है ।
हमारा आलसी बड़ा बेटा भी इस लॉकडॉउन में सलमान खान के जैसे वो सिक्स पैक ऐब बनाने के लिए रोज़ कसरत करने लगा है । उसका कसरत करके अपने शरीर को फिट बनाने का यह जुनून हमारे लिए एक नई मुसीबत बन गया है । बेटा भले ही सलमान खान न बन पाए लेकिन उसकी रोज़ की कसरत के गुणगान करके हमें हमारे लगातार बढ़ रहे वजन और तोंद का भी रोज़ एहसास कराया जाता है । लेकिन आज तो हमने ठान ही लिया था कि कम से कम 1 घंटे तो कसरत करके ही मानेंगे , चलो 30 मिनट से कम कसरत तो करनी ही नहीं है । अभी कुछ ही देर की उछल कूद हो पाई थी कि लगने लगा जैसे 1 घंटा हो गया । अब बेमन से आड़ा तिरछा झुककर और कूदकर पेट कम करने की प्रक्रिया को कसरत करना कैसे कहें । मोबाइल उठाकर टाइम देख ही लिया तो पता चला कि अभी सिर्फ सात मिनट हुए हैं ।
तभी किसी ने नीचे मेन गेट को खटखटाया और हमें भी कसरत अधूरी छोड़ने का बहाना मिल गया । भागकर नीचे आये और लपककर दरवाज़ा खोल दिया , आखिरकार लॉकडॉउन में कौन घर आता है वो भी इतनी सुबह । सामने एक थका परेशान सा दिखनेवाला पसीने बहाता लगभग 35 साल का इंसान खड़ा था , शायद इंसान ही था और इंसान जैसा ही लग भी रहा था । हमने सुना था कि भूत प्रेत दिन में नहीं निकलते क्योंकि डराने धमकाने के लिए उनकी जगह दिन में सरकारी नौकरशाह और नेता बाहर आ जाते हैं । हमने उस इंसान से पूछा तो उसने बताया कि गली के मोड़ पर उसके परिवार के बाकी लोग बैठे हैं जिनमें उसकी पत्नी , उसकी 2 साल की छोटी बच्ची समेत तीन बच्चे , दो छोटी बहन और दो छोटे भाई भी हैं । सभी दो दिन से भूखे हैं सिर्फ पानी पी पीकर पिछले 5 दिन में अपने घर जाने को 500 किलोमीटर का सफर तय कर चुके हैं । उसने हमसे कुछ मदद करने के लिए निवेदन किया , वो निवेदन कम था बल्कि भीख माँगना ज्यादा लग रहा था ।
तभी हमारी नज़र अपने पड़ोस के घर में खड़े भटनागर जी पर पड़ी और हम समझ गए कि ये हमसे मदद करने का यह एकमात्र मौका भी छीन लेंगे । हमें याद आया कि पहले भी हम बहुत मेहनत से एक गरीब की मदद करने के लिए उसे खाना खिलाने अपने घर तक लाए थे और खाना खिलाकर मोक्ष प्राप्त करने लायक पुण्य कमा लिया था लेकिन ऐन मौके पर भटनागर जी आ गए और 200 रुपये नगद उसे देकर बोले कि तुम्हारे लिए किसी रोज़गार की भी व्यवस्था करेंगे । बस हमारा खाना खाकर वो बेचारा गरीब तुरंत ही भटनागर जी के पीछे हो लिया था ।
हमने बिना कुछ सोचे समझे तुरंत अपनी पत्नी को आवाज़ लगाई जो आजकल हमारे बॉस से कम नहीं थीं । पत्नी आईं तो उन्हें सारी बात बताई क्योंकि लॉकडॉउन में पत्नी जिला कलेक्टर के बराबर होती है जिसे अपने घर में इस रहस्मयी वायरस के घुस आने का खतरा बहुत ज्यादा लगता है । इस खतरे की आड़ में वो पत्नियाँ अपने पतियों पर भी नज़र रखती हैं कि टहलने के बहाने कहीं पड़ोस की मिसेज़ वर्मा या मिसेज़ अग्रवाल को इस बीमारी के नुकसान तो नहीं बताए जा रहे हैं । खैर पत्नी से उस इंसान की मदद करने की सिफारिश की तो पत्नी जी ने भी तुरंत अपना रुतबा भाँपकर पूछताछ शुरू कर दी । हम कभी पत्नी तो देखते कभी उस इंसान को और कभी पड़ोसी भटनागर जी को , जो अब तक अपने मेनगेट पर आ चुके थे ।
पत्नी अंदर गईं और कुछ बिस्कुट के पैकेट , कुछ नमकीन , कुछ रात की बची दाल , सब्ज़ी और चावल ले आईं । उस इंसान को देते हुए बोली कि तब तक अपने परिवार को यह खिलाओ जब तक मैं थोड़ा ताज़ा खाना भी बना देती हूँ । उनकी आवाज़ में आई भरभराहट को शायद अपने दुख तले दबे उस इंसान ने महसूस न किया हो लेकिन हमने कर लिया था । हम समझ गए कि पत्नी जी ने इससे बातों में बहुत कुछ जान लिया है । हम भी पत्नी जी के साथ अंदर आ गए यह सोचकर कि उनकी बातों के बीच एक आध करछी या पानी देकर हम भी इस पुण्य में भागी बन जाएंगे ।
किचिन में आते ही पत्नी जी हमसे ही पूछ बैठीं कि केंद्र और राज्यों में बैठी सरकारें क्या अलग अलग होती हैं ? क्या दोनों की रेलगाड़ी , बसें खाना और रुपया पैसा भी अलग अलग होता है ? क्या दोनों सरकारों में बैठे नौकरशाहों और नेताओं को इंसान भी अलग अलग दिखते हैं ? हमने जोर देकर पूछा तो वो एकदम दुख से फट पड़ीं और रुंधे हुए गले से बोलीं की उस आदमी के पाँव देखे आपने , उनमें कैसे छाले पड़े हुए थे और बताइये भला उसके छोटे छोटे बच्चों का क्या हाल होगा ? ये पाँव के छाले क्या इन्हें दर्द नहीं करते या इसका दर्द इन गरीब और मजबूर मज़दूरों को नहीं होता ?
अब गेंद हमारे पाले में थी और पत्नी जी की आँखें हमें घूर रही थीं मानो पूछ रही हों कि वैसे तो हर बात पर ज्ञान बाँटते हो , आज जवाब क्यों नहीं दे रहे ? हमने उन्हें समझाया कि ये लोग गरीब है , बेबस हैं , मजबूर हैं और ऐसे लोग सिर्फ सत्ता तक पहुंचाने का साधन मात्र होते हैं । चुनाव आते ही यह गरीब सत्ता पाने की वो अनमोल सीढ़ी बन जाते हैं जिसके सिर पर कदम रखकर राजनीति ऊपर चढ़ती है । एक बार सत्ता हाथ आयी नहीं कि इन इंसान जैसे दिखने वाले गरीबों से अगले चुनावों तक पूर्ण रूप से सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए दूरी बना ली जाती है । यह जहाँ जन्म से रहते हैं वहाँ भी निवास प्रमाण पत्र बनवाते हैं और रोजगार के लिए जहाँ जाकर रहते हैं वहाँ भी पेट भरने के लिए रिश्वत देकर राशन कार्ड बनवाते हैं । सत्ता के लिए ये सिर्फ सिंहासन तक पहुंचने का सहारा मात्र होते हैं जिन्हें सत्ता मिलने के बाद राजनीति के लिए छोड़ दिया जाता है ।
रही बात सरकारों की तो चाहें वो केंद्र की है या राज्य दोनों का काम यही है कि अपने अपने मजदूर , अपने अपने पाँव और अपने अपने छाले अपनी अपनी अलग अलग राजनीति के लिए रख लेते हैं । सत्ता इन पाँव के छालों वाले मजबूर इंसान जैसे दिखने वाले प्रवासियों के लिए खाना बनवाती है , बाँटवाती है , इनके घर जाने का प्रबंध करती है लेकिन फिर भी ये सड़कों पर भूखा ही भटकता रहता है क्योंकि इसके लिए कुछ भी पूरा नहीं पड़ता । दोनों सरकारों का काम एक सा होता है , रुपया पैसा खाना मदद भी एक सी होती है लेकिन क्या करें ये मजबूर प्रवासी ही अलग अलग शक्लों के होते हैं इसीलिए सबकी मदद नहीं हो पाती । अगर ये सब एक से हों तो एक कि मदद कर दी जाए और सभी सरकारों का भला हो जाये ।
लेकिन बढ़ती जनसंख्या के बेतरतीब खर्चों और नेताओं की हमेशा बढ़ती रहने वाली तनख्वाह आदि के राजशाही खर्चों के बाद सरकार के खजाने में आखिर बचता ही क्या है ? अब पत्नी जी को इतने कम समय में जनसंख्या विस्फोट , अमर्त्य सेन का आर्थिक विज्ञान और मैगसेसे पुरुस्कार की अहमियत जैसे गंभीर मुद्दों पर कैसे समझाएँ । मैंनें और ढंग से बताया कि यह इंसान जैसे दिखने वाले प्रवासी भी सिर्फ लॉकडॉउन में ही ज्यादा दिखाई दे रहे हैं क्योंकि प्रवास की असली मजबूरी तो इन्हें भी इस अदृश्य बीमारी के वायरस की वजह से ही समझ में आई है नहीं तो कम पैसों और कुछ परेशानियों के साथ अपने घरों में ही मजफूज़ थे ।
जनसंख्या विस्फोट में बड़े होते परिवारों के बीच बंटकर सिमटती खेती की ज़मीन , चौमासे में टपकता कच्चा छोटा सा घर और 13 लोगों का बड़ा सा परिवार पालने में जो तकलीफ थी वो जब जब बर्दाश्त से बाहर हुई ये मजबूर निकल गए अपना घर छोड़कर बाहर कमाने खाने को । ज्यादा कमाकर सबका पेट भरने की छोटी सी जायज़ ख्वाहिश ही तो आज इन्हें दर ब दर भटकाती फिर रही है । लेकिन अब ये इंसान जैसे दिखने वाले भूखे मजबूर प्रवासी भी समझ गए होंगे कि क्या सही है और क्या गलत ? पत्नी जी ने अब तक एक बड़े कुकर में उड़द की दाल एवं चावल की खिचड़ी बना ली थी और उसे एक बड़ी सी थैली में करके साथ में घर का बनाया अचार और चटनी भी एक थैले में रख दिया था । हमने भी एक बड़ी प्लास्टिक की बोतल में ( हाँलाँकि प्लास्टिक का इस्तेमाल करना हमारे उसूलों के खिलाफ था लेकिन पिलटन ब्राण्ड की महँगी बोतल उन गरीबों को देकर पाँव के छालों के दुख में डूबी पत्नी जी से दो दिनों तक ताने सुनने की ताकत भी हममें नहीं थी ) पीने का पानी भरा और दोनों चीजें लेकर बहुत दिनों बाद आज घर के बाहर निकल पड़े ।
गली के मोड़ तक आते आते हमें ऐसे फील हो रहा था जैसे एक बहुत बड़ा सरकारी काम करने निकले हैं और इसे सम्पूर्ण करने पर हमें मुहल्ले के नोबेल पुरस्कार दिया जाएगा । गली के मोड़ पर बैठे दो पुलिसवालों से भी हमें अब कोई डर नहीं लग रहा था क्योंकि मदद करने के लिए सरकार ने ही तो कहा था । हम मोड़ पर पहुँचे और उस परिवार को खाना देकर वहीं पास में खड़े हो गए ।
भटनागर जी हमसे पहले ही वहाँ पहुंच चुके थे और 100 रूपये के 10 नोट बड़ी शान से सभी को बाँट चुके थे । साथ ही वहाँ बैठे पुलिसवालों को अपने फ्रिज का ठंडा पानी और घर से लाई नमकीन खिला कर दोस्ती भी कर चुके थे । वो इंसान की तरह दिखने वाले लोग भी हमारे खाने के थैले से ज्यादा नोट देखने में व्यस्त थे और हम सोच रहे थे कि हमारे खाने से ज्यादा अहमियत इन रुपयों की है । सच ही तो है आखिर इस दौर में अर्थ से ज्यादा अहमियत और किसी चीज़ की हो भी कैसे सकती है । आखिर इन्हें अपने घर पहुँचना है जो हमारा खाना नहीं कर सकता लेकिन शायद भटनागर जी के ये कुछ नोट जरूर कर सकते हैं । कोई बस या ट्रेन भले ही न मिल पाए लेकिन जानवर की तरह ही सही किसी ट्रक में ठुंसकर और अपनी जान हथेली पर रखकर आखिरकार घर तो पहुँच जाएँगे ।
हम देख रहे थे अपने खाने के थैले और लॉकडॉउन में घूम रहे इन प्रवासियों के साथ ही उनके पाँव के छालों को जिनका दर्द भी घर पहुँचकर शायद जल्दी ही ठीक हो जाएगा ।
लेखक
अतुल सिन्हा
