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खौफ

सुबह ग्यारह बजे की ट्रेन थी। मुश्किल से पांच मिनट पहले स्टेशन के बाहर पहुंचा। टैक्सी वाले ने पचास का नोट पकडाया । उसके चालीस बनते थे। जेबें टटोलते हुए उसने कहा-" खुल्ले नहीं है क्या साब ।" सुनते ही मैंने कहा - " जल्दी देखो यार होगें।" कहते हुए मैंने अपना भी पर्स टटोला। ध्यान बार -बार स्टेशन के अन्दर जा रहा था। अधमरी सी आवाज में टैक्सी वाला बोला-" पांच ही है साब"। उसके हाथ से पांच का सिक्का छीनकर अपना बैग कंधे पर लटकाये भागा स्टेशन के अन्दर। टिकिट खिड़की पर कोई यात्री नहीं दिखा तो मन में धक्का लगा सोचा शायद ट्रेन चली गई है। पास ही खिड़की पर पूछताछ लिखा देखा तो खिड़की में झुकते हुए मैंने पूछा -"जयपुर जाने वाली ट्रेन... वाक्य पूरा सुनने से पहले ही अन्दर बैठा नौजवान बोला.

दो घण्टे लेट है। ट्रेन के लेट होन पर कितनी खुशी कितना संतोष हो सकता है एक ही पल में मैंने महसूस किया। टिकिट खिड़की की तरफ देखा अब वहां दो-तीन लोग आ खड़े हुए थे। कंधे पर भारी बैग उतारकर मै भी उनके पीछे लग गया लाईन में । मुश्किल से पांच मिनट में ही आबू से जयपुर का साधारण क्लास का टिकट मेरे हाथ में था। ट्रेन आने में पूरे दो घंटे बाकी थे। पानी की एक बोतल ली और एक बार में ही आधी करदी। गले में तरावट महसूस हुई। कंधे का भारी बैग एकदम हल्का लगने लगा स्टेशन की दुकानों के होर्डिंग और सामग्रियों के नाम पढ़ता हुआ मैं मुसाफिरखाने की तरफ बढ़ा । एक दुकान किताबों की दिखाई दी। अखबार लेने की इच्छा से मैं उस तक गया। अखबार नहीं थे । पांच -सात मिनट खड़े रहकर दुकान में सजी किताबों को देखता रहा है । पाक्षिक मासिक मैग्जीन , हिन्दी उपन्यास, फिल्मी पत्रिकाएं और ढेर सारी अमीर और सफल बना देने वाले शीर्षकों की किताबें थी । कुछ भी लेने का मन नहीं हुआ। दुकान से मुड़ने लगा कि एक चित्र ने ध्यान खींचा। एफिल टावर पर एक बंदर और एक खरगोश बैठे थे। पर्यटन विशेषांक लिखा चंपक का नया अंक था। मूल्य पन्द्रह रूपये भी कवर पर ही लिखा था । काउंटर पर से उठाकर एक-दो सैकेंड में ही उलट-पलट कर दुकानदार से कहा-"ये दे दो।" किताब लेकर मैं मुसाफिरखाने में लगी सीमेंट की सीट पर आ बैठा। कोने में लगी सीट आरामदायक महसूस हुई । बैग पर हाथ टिका, अधपसर कर मैंने चंपक पढ़ना शुरू दिया।

यूरोप के अलग-अलग देश और वहां की देखने लायक जगहों और इमारतों के बारे में अन्दर लिखा था। कुछ देशों के प्रसिद्ध चित्र भी इसमें बने थे । चंपक के प्रसिद्ध पात्र बंदर, खरगोश, लोमड़ी, भालू बातो-बातों में ही यूरोप की यात्रा करवा रहे थे । मैं एक के बाद एक कहानी पढ़ता जा रहा था लगभग तीस-चालीस मिनट तक मैं किताब में खोया रहा ।

अचानक महसूस हुआ , कोई मेरे पैरों के पास ही है । किताब की ओट में से ही मैंने देखा, दो लड़के थे दोनों नौ-दस साल के होंगे । रेल्वे की गंदगी में से कचरा बीनने वाले ये दोनों लड़के मेरे बैंच से लटकते पैरों के पास झुके हुए थे घुटनों को मोड़कर उन पर हाथ टिकाकर । दोनों मेरे हाथ की किताब के कवर को देख रहे थे । पास में ही उनके दो मैले, प्लास्टिक के बोरे भी रखे हुए थे । दोनों के दो अलग-अलग बोरे । मैं किताब में देख रहा था। मैं खुद को बिना हिलाए डुलाए ज्यों का त्यों बैठा रहा ताकि वो कवर को जितना चाहे देखते रहे । कुछ-कुछ बोलते हुए वो धीरे-धीरे हंस भी रहे थे एक लड़के ने किताब का कोना पहले छुआ और फिर पकड़ भी लिया। मुझसे नजरें मिली। मैं तुरन्त मुस्कुराया लड़कों का हौंसला बढ़ा। मैं चाहता भी यहीं था। एक लड़का अपने ही कचरे के बोरे पर आराम से बैठकर किताब की ओर देखने लगा। घुटनों पर हाथ टिकाये-टिकाये वो थक गया होगा। उसी ने किताब के बीच में से दिख रहे किताब के पन्नें पलटने की कोशिश की । मैंने बिना बोले, बिना टोके उन्हें सहमति दे दी थी कि वो और आगे बढे जितना बढ़ सकते है। दोनों की गहरी रूचि थी उस किताब में और उसके कवर में भी। मैं बोला-" लो अच्छी तरह से देख लो ।" दोनों में से एक बोला- नहीं ऐसे ही रहने दो।" मैंने किताब एक लड़के के हाथ में छोड़ते हुए कहा-" अरे, देख लो यार अच्छी हैं।" उन्होंने झिझकते हुए किताब के पन्ने पलटनस शुरू कर दिया।

वो झिझक रहे थे कि उनके मैले, काले, गन्दे हाथों से कहीं किताब मैली न हो जाये | पन्ने पलटते और खुशी तरह - तरह से उनके चेहरों पे दिखाई देती रही । मैंने धीरे से पूछा-" तुम पढ़ना जानते हो?" ये जानता है । सफेद, गोल-गले वाली घुटनों तक लंबी और मैल से काली हो चुकी टी-शर्ट पहना हुआ लड़का बोला। दो-तीन मिनट गुजर गये वो दोनों किताब में खोये रहे । अबकि बार मैं ने उनका नाम पूछ लिया। एक ही लड़के ने दोनों का नाम बता दिया। खुद का विनोद और दूसरे का नाम मनीष । अबकि मैंने पूछा-" कहां रहते हो?" किताब नजर गड़ाये हुए ही बोले-" लेन के पार वर्कशॉप में " तुम को ये किताब अच्छी लग रही हैं क्या ? मैंने पूछा। दोनों ने मुस्कुराते हुये मेरी तरफ देखा । मैंने फिर पूछा "बताओं, अच्छी है क्या ये किताब ? हां, अच्छी हैं।"स्टेशन पर लगी इलैक्ट्रोनिक पट्टी पर समय साफ नजर आ रहा था । बारह पचास हो रहे थे । मेरी ट्रेन आने में दसेक मिनट बचे थे। ट्रेन आने का अनाउन्समेंट भी हो चुका था । मैंने दोनो लड़को से पूछा- तुमको पढ़नी है क्या ये किताब"। दोनों ने कोई जवाब नहीं दिया। मेरी ओर किताब को बढ़ा दिया। "तुम रख लो, तुम्हीं ले लो, पढ लेना।" ऐसे ही वाक्य मैंने बोले और लगभग जबरदस्ती उनको वो किताब दे दी। 'चंपक' यूरोप के अतिविकसित देशों की कहानी वाली पर्यटन विशेषांक । बाल पुस्तक।

छोनों लड़के वहीं खड़े-खड़े किताब में झांकते रहे । मैं मुसाफिरखाने से निकल रहे प्लेटफॉर्म पर आ गया । ट्रेन भी आ चुकी थी और रूकने से पहले रेंगती हुई सी आकर पटरियों पर आकर खड़ी हो गई। यात्री भागमभग में थे चढ़ने वाले उतरने वालों के उतरने से पहले ही ट्रेन में चढ़ जाना चाह रहे थे । रास्ता साफ होने के इंतजार में एक डिब्बे के दरवाजे के आगे मैं खड़ा हो गया । बैग को संभालता हुआ मैं डिब्बे में चढ़ने वाला ही था कि वो दोनों लड़के दिखाई दिये । दोनों मेरी तरफ ही आ रहे थे। मैंने दोनों की तरफ देखकर स्माइल दी और उनकी तरफ देचाने लगा। वो मेरे पास आ गये और पास आकर रूक गये। जहा तक याद आ रहा है मनीष ने कचरे के बोरे में हाथ डाला और उसमें से कुछ निकाला उसके हाथ में वो किताब थी 'चंपक' मेरी ओर बढ़ाते हुए बोला-" ये लो आपकी किताब ।" मैंने उसकी आवाज में थोड़ी घबराहट महसूस की। मैं बोला- "तुम रख लो वापस क्यों दे रहो हो? , क्या ये वापस देने ही आये थे?" "हा" अबकी बार विनोद बोला । "हमारे पास किताब देखेंगे तो पुलिस वाले मारेंगे।" उसकी बात सुनकर मैं चकराया और बोला -" किताब पढ़ने पर पुलिस वाले क्यों मारेंगे? नहीं मारेंगे रखलो।" अब मनीष ने चारों तरफ गर्दन घुमाई और डरते हुए बोला नई किताब हमारे पास देखेंगे तो पुलिस वाले कहेंगे हमने इसे दुकान से चुराया है।" अब एक शब्द भी मेरे मुंह से नहीं निकल सका। महसूस हुआ जैसे गले में कुछ अटक सा गया कडवा, कसैला सा। हाथ बढ़ाकर मैंने किताब पकड़ ली । मैं दोनों लड़कों की तरफ देखता रहा । बिल्कुल ऐसे जैसे घुप्प अंधेरे में कुछ देखने की कोशिश कोई कर रहा हो । कुछ दिखाई नहीं दिया। गाड़ी ने सीटी दी तो मैं डिब्बे में चढ़ गया । कंधे का बैग गैलेरी में पटक कर वापस प्लेटफॉर्म पर झांका । गाडी चल दी थी। लोग अपने रिश्तेदारों को हाथ हिलाकर विदा कर रहे थे । गाड़ी ने स्पीड पकड़ ली थी । प्लेटफॉर्म पर भी भीड़ थोड़ी कम हुई तो नजर आया, दोनों छोटे लड़के अपनी पीठ पर कचरे के बड़े बोरे लादे चले जा रहे थे, पीछे की ओर।

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