रचना के विवरण हेतु पुनः पीछे जाएँ रिपोर्ट टिप्पणी/समीक्षा

कजरी

दुल्हन सी सजी है आज जगतपाल चौधरी की हवेली। हवेली के मस्तक पर बने कँगूरों पर टिमटिमाते छोटे छोटे सफेद बल्बों की झालर ऐसी प्रतीत होती है जैसे किसी दुल्हन को मोतियों की लड़ से सजी ओढ़नी ओढा दी गई हो। हवेली की प्रत्येक दीवार पर जगमगाते असंख्य रंगीन बल्ब ओढ़नी में जड़े सितारों का आभास देते हैं, जैसे एक दुल्हन के स्वागत के लिए दूसरी दुल्हन को सजा धजा कर खड़ा कर दिया गया हो। जगतपाल चौधरी के इकलौते और लाडले पोते मणि की बारात आज दुल्हन को लेने जा रही है। पोते के विवाह की खुशी ने उनके बूढ़े हो चुके शरीर को अनोखी शक्ति प्रदान कर दी है। बीसियों नौकरों के होते हुए भी वे स्वयं आज भाग-भाग कर सारा इंतजाम सम्भाले हुए हैं। मणि का सुंदर सजीला मुखड़ा देखते ही उनके ह्रदय में उसके लिए अगाध प्रेम उमड़ आता है। बड़ी मुश्किलों व इंतजार के बाद पाया है उन्होंने उसे।
जैसलमेर जिले का गाँव है रामगढ़, रेतीले धोरों पर बसा। गाँव के मुखिया हैं जगतपाल चौधरी। सारा गाँव उन्हें बड़े मालिक के नाम से पूजता है। गाँव के दीन दुखी लोगों की मदद करना उन्होंने हमेशा अपना फर्ज नहीं धर्म समझा है। यही वजह है कि आज सारे गाँव मे उत्साह का माहौल है। हर कोई मणि की बारात में शामिल होना चाहता है।
दिसम्बर का महीना है और मरुप्रदेश गर्मियों में जितना गर्म, सर्दियों में उतना ही सर्द हो जाता है। साँझ हो चली है और संध्या की इस बेला में हवेली के द्वार पर बज रही शहनाई की स्वरलहरियां बड़ी मधुर लग रही हैं। हवेली के बाहर लगे विशाल शामियाने में बारात में जाने वाले लोग जमा हो चुके हैं। बारात पास के ही गाँव किशनगढ जाएगी और दूसरे दिन सवेरे ही दुल्हन को लेकर आ जायेगी। शहरों की बारात का स्वरूप आज चाहे कितना ही क्यों न बदल गया हो , लेकिन गाँव की बारात में आज भी सिर्फ पुरुष ही होते हैं। स्त्रियों को बारात में जाने की इजाजत नहीं है। कैसी विचित्र प्रथा है , एक स्त्री स्वयं अपने बेटे के फेरे नहीं देख सकती।
चौधरीजी की बहू और मणि की मां कजरी आज दुल्हन के स्वागत की तैयारियों में जुटी है। हवेली में उसका 'छोटी मालकिन' के रूप में बड़ा दबदबा है। हवेली की एकमात्र स्त्री वही तो है। पैंतालीस वर्ष की आयु में भी उसका रूप सौंदर्य देखते ही बनता है। कंचन सी पीतवर्णी आभा उसके चेहरे पर बिखरी है और उस दमकते चेहरे पर है दो बड़ी बड़ी काली आँखे , जो उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को गहराई प्रदान करती हैं। केसरिया रंग की सितारों जड़ी ओढ़नी में आज वह स्वयं दुल्हन सी लग रही है। अठाईस बरस पूर्व वह दुल्हन बन कर इस हवेली में आई थी और आज वह किसी को दुल्हन बना कर इस हवेली में ला रही है। तब भी हवेली इसी तरह सजी थी और आज भी। बरसों पूर्व की स्मृतियां रह रह कर उसके मानस में बिजली सी कौंध जाती हैं। वक्त का लंबा अंतराल भी उन स्मृतियों को धुंधला नहीं कर पाया है। तब भी इस हवेली से बारात किशनगढ़ ही गई थी और आज भी इस हवेली की बारात किशनगढ़ ही जा रही है। किशनगढ़ से बरसों पुराना रिश्ता है उसका। बड़ी कठिनाई से उसने अपने सिर को झटका दे कर स्मृतियों को जैसे पीछे धकेल दिया और अपने काम में लग गई।
बारात रवाना होने में कुछ ही देर है। हवेली के द्वार पर खड़े हो कर उसने एक नजर जमा हुए लोगों पर डाली तो अचानक ही दृष्टि एक व्यक्ति पर जाकर ठहर गई। इतनी दूरी से उस व्यक्ति की अस्पष्ट सी झलक ने उसको भीतर तक कँपा दिया।
उसकी दृष्टि ने कहीं धोखा न दिया हो , यही सोच कर कजरी ने ध्यान से देखने की चेष्टा की। उसके ह्रदय से आवाज आई " वही है" लंबा कद्दावर शरीर, चेहरे पर कुछ आगे तक लटके भूरे बाल। ध्यान से देखा कजरी ने उसे, वह उसे ही देख रहा था। स्वयं पर पड़ती उसकी नजरों के एहसास से कजरी सिहर उठी।
"आज इतने वर्षों बाद, वो भी मणि की शादी के दिन !" सोच कर ही कजरी का सिर चकराने लगा।
" मां! ओ मां! कँहा हो? मेरी जूतियाँ नहीं मिल रही।" मणि ने भीतर से उसे पुकारा और कजरी भीतर चली आई।
जरीदार साफा , शेरवानी और चूड़ीदार में मणि के रूप को निहारती रह गई कजरी। स्वंय की आँख से काजल निकाल कर बेटे के मस्तक पर छोटा सा काला टीका लगा दिया। बारात को विदा करने हवेली से बाहर आई तो दृष्टि स्वयंमेव ही किसी को ढूंढने लगी, लेकिन जिसे पहले नजरों ने अचानक ही देख लिया था वह अब ढूंढ़े से भी नहीं मिल रहा था। बारात विदा हो गई और हवेली का कोलाहल पूर्ण वातावरण अचानक शांत हो गया लेकिन यह खामोशी कजरी को किसी बड़े तूफान का संकेत देती लग रही थी। थके कदमों से वह हवेली के भीतर आई और पलंग पर लेट कर आँखे मूंद ली। बन्द आँखों के भीतर वही अक्स उभर आया। मणि की बारात तो अभी किशनगढ़ से दूर थी लेकिन उसका मन किसी बेलगाम घोड़े सा सरपट दौड़ता उसे बचपन की गलियों में खींच ले गया।
भारत पाकिस्तान सीमा पर बसा गाँव किशनगढ़। जहाँ उसका जन्म हुआ। ऐसी रूपवती कन्या पाकर उसके माता पिता का कद भी गाँव में ऊँचा जो गया था। बारह बरस की होते होते उसे अपने असाधारण रूप का आभास होने लगा था। कुछ तो माता पिता ने , कुछ सखियों की ईर्ष्या दृष्टि ने उसे स्वयं की सुंदरता पर गर्वित होना सिखा दिया था। पन्द्रह बरस की हुई तो यौवन के सम्मिश्रण ने उसकी सुंदरता में चार चाँद लगा दिए। एक दिन स्कूल से आई तो दरवाजे की ओट से सुना उसने, पड़ोस की दीना ताई मां से कह रही थी " मेनका सो रूप है थारी बेटी रो रत्ना, घर मैं बिठा अर मत राख, बेगी सूं हाथ पीला कर दे।"
"म्हारी छोरी रा ब्याह री फिकर थे न करो जिज्जी! लाखां मैं एक है म्हारी कजरी! हीरा रो मोल जौहरी ही पहचाने है। माथा पर हवेली की राजरानी सी लकीरा ले अर पैदा हुई है। जौहरी आपे ही खोज लेसी इने।" दर्प से भरी मां ने कहा था। माँ के शब्दों का ऐसा असर हुआ कि उसी दिन से उसने किसी बड़ी हवेली की मालकिन बनने के ख्वाब देखने शुरू कर दिए। हर दिन उसे लगता कि कोई सपनो का राजकुमार आएगा औऱ उसे किसी बड़े महल सी हवेली में ले जाएगा। अपने इन्हीं ख्वाबों के साथ साथ वह बड़ी होने लगी।
" छोटी मालकिन! छोटी मालकिन।" कजरी की तन्द्रा भंग हुई। रसोईदारिन खड़ी उसे पुकार रही थी। " थे जीम ल्यो छोटी मालकिन ।" उसने कहा।
" नहीं आज मन नहीं है, तुम लोग खा लो।" कजरी ने कहा तो रसोईदारिन चुपचाप चली गई। हवेली में कोई भी कजरी के समक्ष ज्यादा नहीं बोलता, ऐसा इसलिए नहीं कि सब उससे डरते हैं, बल्कि उसके पद को आदर व सम्मान देते हैं। मालकिन तो वह बन गई, पर......।
कजरी ने फिर से आंखें मूंद ली। उसे याद आया वह दिन जब माँ ने उसे पड़ोस के जोगी चाचा के यहाँ खाना पकड़ा आने को भेजा था। चाचा अकेले थे औऱ बीमार रहते थे सो माँ अक्सर उनके लिए खाना भेज दिया करती थीं। उस दिन दरवाजा खुलने पर एकदम अनजान चेहरा दिखा तो वह चमक कर पीछे हट गई। गोरा रंग , भूरे बाल, कुछ भूरी आँखे, लंबा कद औऱ बलिष्ठ भुजाएँ। हल्के नील रंग का पढानी कुर्ता पाजामा।
" अरे! माइने आ जा बिटिया।" चाचा ने उसे देख कर अंदर से ही आवाज लगाई। पर कैसे जाती अंदर ? रास्ता तो वह रोके खड़ा था। कजरी ने उसकी ओर देखा तो वह एक ओर को हो गया।
" माँ ने आपके लिए खाना भेजा है चाचा! " कजरी ने कहा जरूर पर उसकी नजरें अब भी उस अनजान चेहरे पर टिकी थीं।
" यो रूप है , म्हारी भैंन रो बेटो। अर रूप या है म्हारी कजरी बिटिया।" जोगी चाचा बोले। यही उनका पहला परिचय था। कुछ ही दिनों में कजरी ने रूप के बारे में कई बातें सुन ली थीं कि रूप पाकिस्तान से आया है, जोगी चाचा की बहन किसी मुसलमान के साथ भाग गई थी और फिर लौट कर नहीं आई थी। कुछ दिनों पहले ही सड़क हादसे में दोनों चल बसे तो चाचा ने रूप को अपने पास बुलवा लिया। जब से रूप आया था कजरी ने चाचा के यहाँ जाना कम कर दिया था। रूप की नजरें उसे हर वक्त स्वयं का पीछा करती नजर आती। उसकी नज़रों में खामोश सा भोलापन और स्नेह था। उसकी खामोशी से जाने क्यों कजरी को डर लगता था। न जाने दिन भर कमरे में बंद क्या किया करता था। बन्द दरवाजों के पीछे झाँकने की उत्सुकता, ढकी छिपी बातों को जानने की जिज्ञासा इंसान का स्वभाव रहा है। अब जब भी कजरी चाचा के यहाँ जाती तो नजरें बन्द दरवाजे के पार झाँकने की कोशिश करतीं। एक दिन उसे अवसर मिल गया। रूप घर पर नहीं था औऱ चाचा गहरी नींद में सोए थे। उसने धीरे से कमरे का दरवाजा खोला, हल्की रोशनी कमरे में फैल गई औऱ जब सामने देखा तो वह पलकें तक झपकाना भूल गई। उसे पता था वह सुंदर है लेकिन स्वयं के इतने सुंदर स्वरूप की कल्पना तो स्वयं उसने भी नहीं की थी। सामने एक बड़े कैनवास पर उसका चित्र बनाया हुआ था जिसे बड़ी ही खूबसूरती से एक झीनी ओढ़नी ओढ़ा दी गई थी । ओढ़नी के झीनेपन से उसे पहनाया गया प्रत्येक आभूषण झलक रहा था। स्वयं की सुंदरता को ही ठगी सी खड़ी निहारती रह गई कजरी। उसने कभी इतने आभूषण नहीं पहने ; कभी ऐसी ओढ़नी नहीं ओढ़ी, फिर रूप ने इस सब की कल्पना''’'''''''अपने साधारण से लहँगे चोली और ओढ़नी में खड़ी अभी वह सोच ही रही थी कि कुछ आहट पाकर पीछे पलटी। सामने रूप खडा था। अपनी अवैध घुसपैठ की शर्म से उसकी नजरें झुक गईं। रूप के चेहरे पर मंद मुस्कान और मौन पसरा रहा। कजरी चुपचाप वहाँ से चली आई । वहाँ से तो चली आई कजरी लेकिन अब अक्सर एकांत में वही मुस्कुराता चेहरा उसकी नजरों के सामने आ खड़ा होता औऱ कजरी के चेहरे पर मंद स्मित की हल्की सी लकीर खींच जाता।
घर मे उसके लिए रिश्ते आने शुरू हो गए थे , लेकिन माँ को सभी रिश्ते कजरी की सुंदरता के समक्ष बौने नजर आते। फिर एक दिन अपनी मौन तूलिका को शब्दों के रंग दे दिए रूप ने। चन्द शब्दों के।
साँझ ढ़लने को थी। तपती रेत को सहलाती धीमी हवाएँ बरखा के आगमन के संदेसे लाने लगी थीं। मंदिर में दर्शन कर वह पास ही बावड़ी की सीढ़ियों पर बैठ गई। अचानक कुछ आहट पाकर पीछे देखा तो रूप खड़ा था। एकांत में बन्द आँखों के पीछे जो चेहरा उसे उमंगित कर देता वही चेहरा प्रत्यक्ष होने पर उसे कँपा देता। उठ कर अभी एक सीढ़ी ही चढ़ी थी कि बावड़ी की गहराइयों से निकलती सी आवाज आई ' ठहरो '। इस स्नेहसिक्त एक शब्द में जाने कितनी बेड़ियोँ की ताकत थी कि उसके पैर जमीन से चिपक कर रह गए। पलकों ने उसकी लाख कोशिशों के बावजूद भी उठने से इनकार कर दिया और नज़रों की पहरेदार बनी रहीं। चंद क्षणों के अंतराल के पश्चात उसके कानों ने सुना " मेरी दुल्हन बनोगी? " उस एक पल में ही कजरी के दिल और दिमाग में सैंकड़ों बिजलियाँ कड़क गईं। '''''''दिल कह रहा था, यहीं... यहीं समा जाए इसकी बाहों में लेकिन तभी दिमाग पहरेदार बन आ खड़ा हुआ। कौन है यह! एक भागी हुई माँ और मुसलमान बाप का अनाथ बेटा! क्या ऐसे घर की दुल्हन बनने के ख्वाब देखे थे उसने? क्या यह कभी हकीकत में वो सब आभूषण पहना सकेगा जो इसने मेरी तस्वीर को पहनाए है? ’''''''''कैनवास पर उकेरा स्वयं का चित्र उसके समक्ष आ खड़ा हुआ , वह जानती थी कि रूप उस चित्र को हकीकत में नहीं बदल सकता। तराजू के पलड़ों में उसे स्वयं के देखे ख्वाब , रूप से कहीं ज्यादा वजनी नजर आए औऱ दिमाग जीत गया, उसकी गर्दन स्वयमेव ही इन्कार में हिल गई। कच्ची मिट्टी में गड़े ख्वाबों ने पक कर आकार ले लिया था।
" नहीं " धीरे से कहे इस एक शब्द के बाद वह वहाँ रुक न सकी और तेज कदमों से घर चली गई थी। कई दिनों तक घर से बाहर नहीं निकली सो नहीं जान पाई कि उसकी ' ना ' से रूप पर क्या गुजरी होगी।
कुछ ही दिनों बाद रामगढ़ के मुखिया चौधरी जगतपाल ने उसे अपने बेटे के लिए माँग लिया। माँ ने गाँव भर में ढिंढोरा पीट दिया " म्हारी कजरी कै ताईं हवेली सै रिस्तो आयो है, राजरानी बनैली म्हारी कजरी।" और स्वयं कजरी? वह भी तो खुश थी। उसका देखा ख्वाब सच होने जा रहा था। बहुत दिनों के बाद वह घर से बाहर निकली थी। दर्प से उसका चेहरा दिपदिपा रहा था। उस दिन वह चाचा के यहाँ भी गई , शायद रूप को दिखाना चाहती थी कि उसका निर्णय कितना सही था। रूप पहले की भांति ही उसे देख कर मुस्कुरा दिया, जैसे कुछ हुआ ही न हो। रूप की मुस्कुराहट ने उसके सारे उत्साह को ठंडा कर दिया था।
कुछ दिनों बाद ही रामगढ से कजरी की बारात आ पहुँची। ऐसी बारात गाँव मे पहली बार आई थी। कजरी के माता- पिता का सिर शान से अकड़ गया था। लम्बे घूंघट में से बहुत प्रयत्न करने के बावजूद भी कजरी फूलों के सेहरे के पीछे छिपे अपने सपनों के राजकुमार को नहीं देख सकी। दूसरे दिन कजरी का इसी हवेली में धूमधाम से ' छोटी मालकिन ' नामकरण के साथ स्वागत किया गया। सारा गाँव उसे देखने के लिए उमड़ पड़ा था। कई सालों बाद हवेली में किसी स्त्री का आगमन हुआ था। हवेली के बीसियों सेवादारों ने जब बारी बारी आकर उसके पैर छुए तो कजरी की आँखें छलछला आईं। इतने स्नेह व सम्मान की उसे आदत नहीं थी। कजरी ने जब श्वसुर के पैर छुए तो उन्होंने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा फिर कहा - " सौभाग्यवती , पुत्रवती भव " कजरी ने लजा कर नजरें झुका ली। उसे अपनी किस्मत पर नाज हो आया। इतना आदर सम्मान पाकर उसका मन भीतर तक भीग गया। भीगे मन व पुल्कित तन के साथ वह सुहाग सेज पर बैठी पति का इंतजार करने लगी। दरवाजे पर हुई आहट के साथ ही उसने अपना घूंघट गिरा लिया। कल से जिसे देखने की असफल चेष्टा कर रही थी , आज उसे सामने पाकर भी उसकी नजरें न उठ सकी। जब घूँघट उठने की प्रतीक्षा में थी तभी कानों में स्नेहसिक्त आवाज आई-
" पिता की इच्छा पूरी करने की खातिर अपराध हुआ है मुझसे। इतनी हिम्मत नहीं कि तुम्हारा घूँघट उठा सकूँ।"
कजरी कुछ समझ न सकी तो उसने स्वयं ही अपना घूँघट हटा दिया। अपने सामने सर झुकाए बैठे अपने पति पर जब नजर पड़ी तो ख्वाबों के हिंडोले की रस्सी के किरचे- किरचे हो गए और वह धम्म से गहरी खाई में जा गिरी। उसकी आँखें अपने पति के चेहरे से चिपक कर रह गई। भगवान की बनाई इस खूबसूरत सृष्टि में कोई इतना कुरूप भी हो सकता है यह उसने पहली बार जाना। चेचक के धब्बों से भरा चेहरा , झबरी भौहों के नीचे मिचमिची आँखे , बेढब सी उठी नाक, होंठ थे ही मोटे या पिचके गालों की वजह से लगे उसे, पता नहीं। सिर के बालों को करीने से चिपका कर असमय आ गए गंजेपन को छिपाने का असफल प्रयास किया गया था। कजरी के कंठ से निकली चीख़ उसके कंठ में ही घुट कर रह गई। उसका सिर चकराने लगा औऱ उन मुंदती आँखों के समक्ष न जाने कहाँ से मंद-मंद मुस्काता एक चेहरा उभरने लगा था।
सुबह जब आँख खुली तो हवेली की सबसे बुजुर्ग सेवादारिन को अपने पास बैठा पाया। वह उसके जगने का ही इंतजार कर रही थी। कजरी की आँखें कमरे में किसी को तलाशने लगीं तो वह बोली " छोटा मालिक बगल आला कमरा में हैं छोटी मालकिन। " उसने बिन पूछे प्रश्न का उत्तर दे दिया था फिर धीरे से बोली " बड़ी मालकिन नै गुजरयां आज पन्द्रह बरस हो ग्या। उ बखत छोटा मालिक सात आठ बरस का हि हा , जद सै मैं ही पाल्यो पोसो है।" कजरी की आँखों मे तैरते ढेरों सवालों को बुजुर्ग चन्दा ने जैसे चंद पलों में ही पढ़ लिया था। " विधाता वाने सूरत देबा मैं कंजूसी कर ग्यो, अर रही सही कसर चेचक पूरी कर दी, पण सीरत जी खोल अर दी है। छोटी सी उमर मैं ही बड़ा मालिक रो सगळो काम सम्भाल लियो है। जद गुणा रो अर प्रेम रो कद ऊँचो हो जावे है न तो सूरत नजर ही कोनी आवे।" कहते कहते चंदा की नज़रों में अपने छोटे मालिक के लिए प्रेम औऱ सम्मान उमड़ आया। -" ब्याह ना करबा की जिद लियाँ बैठ्या हा, पण बड़ा मालिक री पोता की चाह कै आगै झुकनो पड्यो। बड़ा मालिक कै एक ही बेटो हुयो, दूजो ब्याह भी कोनी कर्यो। अब तो बस पोता को मुखड़ो देखबा की चाहत मैं ही जीवै है वे।" चन्दा रुकी फिर कजरी के समक्ष अपने दोनों हाथ जोड़ कर बोली " म्हारा बड़ा मालिक नै निरास मत करजो छोटी मालकिन।" कहते कहते उसका गला रुंध गया था और आँखे भर आईं थी। कजरी की आँखें कब आँसुओ से भीग गई उसे पता ही न चला। चन्दा के हाथों को थाम कर वह फूट फूट कर रो दी थी।
काफी आँसू बहाने के पश्चात जब जी कुछ हल्का हुआ तो वह नहा धो कर तैयार हुई , तभी चन्दा ने बताया कि बड़े मालिक उससे मिलना चाहते हैं। कजरी की नस- नस में कम्पन होने लगा, डर से क्रोध से या किसी औऱ अनहोनी से पता नहीं। कमरे से बाहर निकली तो दृष्टि अनायास ही बगल वाले कमरे की ओर उठ गई। दरवाजे पर भारी पर्दा पड़ा था। रात की घटना याद आते ही उसका जी अनमना हो उठा। एक कक्ष के बाहर चन्दा रुकी और पुकारा " बड़े मालिक।"
" बहु को अंदर भेज दो।" भीतर से आवाज आई तो चन्दा ने उसे भीतर जाने का इशारा किया। कजरी ने भीतर प्रवेश किया तो देखा , द्वार के सामने की विशाल दीवार पर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम औऱ माँ सीता का विशाल चित्र टँगा था औऱ चित्र के समक्ष जमीन पर बिछे आसन पर उसके श्वसुर घुटने टेके और हाथ जोड़े बैठे थे। न जाने उस कमरे के वातावरण में ऐसा क्या था कि कजरी के भीतर का कम्पन अनायास थम गया। अगरबत्ती की भीनी महक ने जैसे उसके मन को शांत कर दिया था।
" तुमसे नजरें मिलाने का साहस नहीं है बहु इसीलिये अपराधी की भाँति पीठ किये बैठा हूँ। अपने किये अपराध के लिए भगवान से कई बार माफी माँग चुका हूँ लेकिन तुमसे तो माफी माँगने का साहस भी नहीं है। उमर भर इन मर्यादा पुरुषोत्तम के आदर्शों पर चलने की कोशिश करता रहा, लेकिन हूँ तो इंसान ही। पोते का मुखड़ा देखने की चाह इतनी प्रबल थी कि उस चाह के समक्ष इनके सब आदर्श भी धरे के धरे रह गए और मैं तुम्हारे साथ अन्याय कर बैठा। ये जानने के बावजूद भी कि सीरत की सुंदरता से बड़ी कोई सुंदरता नहीं, मेरी चाहत की बेलडी इतनी ऊँची हो गई है कि मैं उसे किसी भी धार से काट ही नही पा रहा......
अपने वंश का एक सुन्दर उत्तराधिकारी पाना चाहता हूँ मैं।"
इतना कह कर चुप हो गए वे फिर कजरी की ओर देख कर हाथ जोड़ दिए उन्होंने और बोले " जिंदगी में कभी माफ कर सको तो एक ही विनती है मेरी कि मरने से पहले मुझे अपने वंश को आगे बढ़ाने वाला एक दमकता चिराग दिखा देना।" कजरी की आँखों से अविरल अश्रुधारा बह चली थी। अचानक जैसे उसके जीवन मे कोई तूफान आया हो और उसे जिम्मेदारियों से लाद गम्भीरता का जामा ओढा गया हो। उस दिन अपने बचपने को त्याग अचानक बड़ी हो गई थी वह। उसने आगे बढ़ कर भगवान को प्रणाम किया और फिर श्वसुर के चरणों मे अपना सिर रख दिया। उस दिन चार आँखों से बहते आँसुओ के दरिया में बहुत कुछ धुल गया था। उस दिन से वे उसके श्वसुर नहीं पिता बन गए थे।
कजरी ने महसूस किया कि उसका पूरा तकिया गीला हो चुका है और उसकी आँखें खुल गईं। वर्षों पूर्व की स्मृतियाँ उसे फिर से रुला गईं। वह उठ कर बैठी हो गई। उसे जगा देख रसोइदारिन फिर पूछने आ गई " अब तो कांई खा ल्यो छोटी मालकिन! , थोडो सो दूध ही पी ल्यो।" कजरी ने इनकार में सिर हिला दिया। पलंग के बगल की विशाल खिड़की से ठंडी हवा के झोंके पर्दो को चीरते हुए कमरे में घुसे चले आ रहे थे।
" खिड़की बन्द कर देउँ हूँ ।" कह कर रसोईदारिन ने खिड़की बन्द करने का उपक्रम किया तो कजरी बोल पड़ी " नहीं इसे खुला रहने दे , तू जा जाकर सो जा।" आज कजरी अपनी स्मृतियों के भंवर से बाहर नहीं आना चाहती थी। उसने फिर से आँखे मूंद ली।
कुछ दिनों तक तो गोपाल कजरी के समक्ष आने से भी बचता रहा था लेकिन कुछ ही दिनों में कजरी उसे यह विश्वास दिलाने में सफल हो गई थी कि कजरी के लिए उसके चेहरे से महत्वपूर्ण उसका ह्रदय है। धीरे धीरे कजरी गोपाल के शीतल स्निग्ध स्नेह में पूरी तरह डूब गई । उन दोनों को खुश देख कर चौधरीजी का अपराधबोध भी कम हो चला था। कजरी की शादी को तीन वर्ष पूरे होने को आए थे लेकिन उसकी गोद अब तक सूनी थी। चौधरीजी के माथे पर चिंता की लकीरें पड़नी शुरू हो गई थी।
कजरी को याद आया वो मनहूस दिन जब शहर से आई डॉक्टरनी ने सभी जाँचें करने के बाद कहा था कि उसमें कोई कमी नहीं है, उसे तो अब तक माँ बन जाना चाहिए था,कमी उसके पति में है।
डाक्टरनी के शब्द उसके कलेजे को चीर गए थे। कजरी को अपने पिता समान श्वसुर की चाहत के टुकड़े टुकड़े होते नजर आए। डाक्टरनी से यह बात किसी से न कहने का पक्का वादा लिया उसने।
धीरे धीरे चार वर्ष बीत गए। हर दिन चौधरीजी के कान सुनने की आस लगाते कि वह माँ बनने वाली है। और स्वयं वह! वह खुद भी तो मातृत्व सुख के लिए तड़प रही थी। गाँव के लोग , हवेली के नौकर चाकर सभी हवेली में बच्चे की किलकारियाँ सुनने की आस लगाए बैठे थे। कैसे बताए उन्हें कि उनके छोटे मालिक उसे बच्चा नहीं दे सकते! कैसे तोड़ दे वह एक बूढ़े पिता की आस! कैसे तोड़ दे वह उस गाँव की आस जिसने उसे चंद बरसों में ही इतना प्यार व सम्मान दिया कि उसे अपने जन्मदाता माता पिता की कमी कभी महसूस नहीं हुई। इसी प्यार व अपनेपन की वजह से वह अपने पति की कुरूपता को सहने की ताकत पा सकी थी। लेकिन अब ? अब क्या करे वह? कैसे मंझधार में फँस गई थी वह , जहाँ एक ओर सच्चाई थी और दूसरी ओर पूरे गाँव और बूढ़े पिता की आस थी। वह सच्चाई को उजागर नहीं होने दे सकती थी। लेकिन कैसे ? इस प्रश्न का उत्तर स्वयं कजरी के पास भी नहीं था।
एक दिन इसी प्रश्न का उत्तर तलाशते तलाशते कजरी सो गई थी। अचानक उसे नजर आया मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु राम और माँ सीता का चित्र और उसके सामने बैठे उसके श्वसुर , एक ओर वह स्वयं खड़ी है। पिताजी के घुटने जमीन पर टिके हैं और दोनों हाथ याचक की तरह कजरी की ओर फैले हैं। स्वयं के पास उन्हें कुछ देने को न पाकर उसने प्रभु की ओर देखा तो तस्वीर के पीछे से एक चेहरा मुस्काता नजर आया। पसीना पसीना हो गई कजरी और उसने घबरा कर आँखे खोल दी।
कैसा सपना था यह ? कजरी का प्रत्येक अंग पसीना उगल रहा था। उस चेहरे को देख इतना क्यूँ घबरा जाती है वह ? जब कुछ संयत हुई तो उसे लगा प्रभु ने उसके प्रश्न का उत्तर दे दिया है।
दूसरे ही दिन कजरी उसी तस्वीर के समक्ष घुटने टेके बैठी थी। उसके होंठ बुदबुदा उठे " नहीं जानती कि जिस राह पर जा रही हूँ वो सही है या गलत लेकिन इतना विश्वास जरूर है कि मेरे इस राह पर उठे कदम सारे गाँव को और बरसों से आपकी तपस्या कर रहे पिता को असीमित खुशियाँ प्रदान कर सकेंगे। यह पाप होगा या पुन्य यह तो आप ही जानें प्रभु क्यों कि यह राह भी तो आपने ही दिखाई है।"
शादी के बाद कजरी दूसरी बार किशनगढ़ अपने मायके जा रही थी। आज न जाने क्यों वह अपने पति से नजरें नहीँ मिला पा रही थी। पिताजी के चरण स्पर्श किए तो फिर वही आशीर्वाद उनके मुख से निकला " चाँद सा बेटा हो।" वह जल्दी से हवेली से बाहर निकल गई।
दिसम्बर का ही महीना था वह। कड़कड़ाती ठंड पड़ रही थी। जोगी चाचा का साल भर पूर्व देहांत हो चुका था। दूसरे ही दिन वह माँ से मंदिर जाने को कह कर चाचा के यहाँ पहुँच गई थी। साँझ का हल्का अँधेरा घिरने लगा था और एक अँधेरा उसके मन पर हावी होने लगा था। जिस द्वार को बचपन मे जाने कितनी बार खटखटाया था , उसे हाथ लगाने में भी उसके हाथ काँप रहे थे। हिम्मत बटोर कर उसने द्वार खटखटाया। दरवाजा खुला और सामने चेहरे पर वैसी ही मुस्कान लिए रूप खड़ा था। कजरी ने स्वयं ही भीतर आकर द्वार बंद कर लिया।वह नहीं चाहती थी कि कोई उसे यहाँ देखे। स्वयं की इस धृष्टता पर वह स्वयं ही हैरान रह गई थी और रूप तो उसे एकटक देखता रहा जैसे कोई स्वप्न देख रहा हो। कजरी के तन पर वे सब गहने थे जिन्हें वर्षों पूर्व रूप की कल्पना ने उसकी तस्वीर को पहना दिए थे। रूप की कल्पना साकार उसके समक्ष खड़ी थी।
रूप के चेहरे पर नजरें गड़ा दी कजरी ने और बोली " मुझे अपनी दुल्हन बनाना चाहते थे न! आज एक रात के लिए तुम्हारी दुल्हन बनने आई हूँ। कोई सवाल मत करना , बोलो बना सकोगे मुझे सिर्फ आज की रात अपनी दुल्हन?" खिड़की से आती ठंडी हवा के थपेडों से कजरी की ओढ़नी फर फर कर रही थी। रूप ने आगे बढ़ कर खिड़की बन्द कर दी थी औऱ उस रात रूप की बनाई तस्वीर अनावृत्त हो गई थी।
आज फिर वैसी ही ठंडी हवा के झोंकों से उसकी केसरिया ओढ़नी फरफरा रही थी। कजरी सिहर उठी , उसने उठ कर खिड़की के द्वार बंद कर लिए लेकिन अतीत की यादों के खुले द्वार आज उसका पीछा नहीं छोड़ रहे थे।

रूप ने उससे कोई प्रश्न नहीं किया था। आते वक्त कजरी ने ही कहा था" एक विनती है तुमसे, मैं नहीं जानती कि तुम पर इतना विश्वास कैसे कर सकी, बस इतना चाहती हूँ कि मेरे इस विश्वास को कभी ठेस न पंहुचाना। मेरी मजबूरी मुझे तुम तक ले आई या विधाता ने यह रात तुम्हारे नाम लिख दी थी। यह काली रात मेरे तुम्हारे और प्रभु के सिवा किसी और के सामने कभी उजागर न हो, बस यही एक प्रार्थना है तुमसे।"
" तुम्हारे लिए ये मात्र एक काली रात है लेकिन मेरे लिए यही रात मेरी बाकी जिंदगी को जीने का सबब होगी।" कजरी को लगा रूप की आवाज उसके होठों से नहीं जैसे उसकी नाभी से निकल कर आ रही थी। उस दिन उसे अहसास हुआ था कि रूप के प्रेम का कद बहुत ऊंचा है, उस ऊँचाई तक उसकी नजरें नहीं पहुँच सकी थी।
दो महीनों बाद ही हवेली और गाँव मे खुशी की लहर दौड़ गई थी। हर आदमी की जुबां पर एक ही बात थी " छोटी मालकिन माँ बनने वाली हैं, हवेली का चिराग जन्म लेने वाला है।" पिताजी का चेहरा तो मरुस्थल में अचानक आई फ़ुहारों से खिले गुलाब की भातिं खिल गया था।
बेटे का चेहरा देखते ही कजरी के दिल ने धड़कना बन्द कर दिया था। एकदम रूप का प्रतिरूप था वह। गोरा रंग, भूरे बाल, कुछ भूरी चमकदार आँखे और वैसा ही भोलापन। इसका चेहरा क्या सच्चाई को छिपने देगा? कहीँ से भी तो गोपाल का बेटा नजर नहीं आता था वह। लेकिन जब पोते को देख कर दादा का चेहरा खुशी से चमक उठा तो कजरी की घबराहट भी कम हो गई। ऐसा दमकता पोता ही तो चाहते थे वे। विधाता को अनेकों धन्यवाद दिए थे उन्होंने। खुद गोपाल भी तो बेटे को देख स्वयं की कुरूपता को भूल गया था। पोते की मणियों सी चमकदार आँखें देख कर दादा ने उसे मणि नाम दे दिया था। कैसा स्नेह था उन्हें मणि से, जब से उसका जन्म हुआ था उनकी दुनिया उसी के आस पास सिमट कर रह गई थी।
रूप से उसका फिर कभी सामना नहीं हुआ। वह हमेशा के लिए किशनगढ़ छोड़ कर पाकिस्तान लौट गया था, लेकिन एक अनजान सा डर कजरी के ह्रदय में कभी कभी सर उठा ही लेता।
धीरे धीरे साल दर साल गुजरते चले गए। ऐसा नहीं था कि इतने सालों में उसने कभी रूप को याद न किया हो, भूल भी कैसे सकती थी उसे, उसका प्रतिरूप मणि के रूप में हमेशा उसकी आँखो के सामने रहता था। मणि की निष्छल स्निग्ध मुस्कान ने उसे कभी रूप को भूलने ही न दिया। गोपाल से उसे कोई शिकायत नहीं थी, उसने अपना पति व पिता होने का फर्ज भरपूर निभाया था, वही शायद पूरी तरह ईमानदार नहीं हो पाई थी। भीतर कहीं गहरी कब्र में दफन कामनाएं कभी कभी अपनी सुप्तावस्था से जागृत हो उठतीं और उसे जाने कैसे कैसे ख्वाब दिखाई देने लगते और फिर स्वयं के विचारों से वह स्वयं ही शर्मिंदा हो उठती।
अपने अतीत के खुले द्वारों को बंद कर बड़ी कठिनाई से वह उठी और वर्तमान की खिड़की को खोल दिया। उषा की किरणों ने रात के अँधियारे पर धीरे धीरे अपने पंख फैलाने शुरू कर दिए थे। उसने घड़ी पर नजर डाली, बारात के लौटने में कुछ ही समय बचा था। अपने कक्ष से बाहर निकल वह दुल्हन के स्वागत की तैयारियों में व्यस्त हो गई।
हवेली के द्वार पर शहनाई की स्वरलहरियां गूँजने लगी। थोड़ी ही देर के पश्चात मणि अपनी दुल्हन को लिए हवेली के द्वार पर खड़ा था। हाथों में आरती का थाल लिए कजरी ने उन्हें देखा तो देखती ही रह गई। अगर वह रूप की दुल्हन बनी होती तो उनकी जोड़ी भी ऐसी ही लगती। आज न तो मणि का चेहरा लम्बे सेहरे के पीछे छिपा था न ही उसकी दुल्हन का घूँघट लंबा था।
ईश्वर ने इंसान की प्रवृत्ति ही ऐसी बनाई है, अलभ्य के लिए छटपटाना औऱ लभ्य के सुख को बेमानी समझना।
आज मणि का कमरा फूलों से सजाया जा रहा था। चाह कर भी कजरी आज वर्षों पूर्व की अपनी पहली रात नहीं भुला पा रही थी औऱ न चाहने पर भी उसे अपने जीवन की एक और रात रह- रह कर याद आ रही थी। स्वयं को काम मे अधिक से अधिक व्यस्त रखने के बावजूद भी आज उसका अतीत उसका पीछा नहीं छोड़ रहा था।
" छोटी मालकिन , कोई आपके लिए यह देकर गया है। " नन्दी ने एक लिफाफा उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा तो अनजाने डर ने उसे सहमा दिया।कमरे में आकर लिफाफा खोलते वक्त उसके हाथ काँप रहे थे।कागज का एक पुर्जा, जिस पर छोटी छोटी साफ लिखाई में लिखा था -
"सिर्फ एक बार और आखिरी बार मिलना चाहता हूँ। जानता हूँ आज के दिन तुम्हारा हवेली से बाहर निकलना मुश्किल है लेकिन कुछ वक्त निकाल सको तो हवेली के बाईं ओर मंदिर के पास वाले खण्डहर की सीढ़ियों पर मिलूँगा। तुम्हारे न आने तक तुम्हारे इंतजार में।"
रूप
कजरी के हाथ काँपने लगे, ठंड में भी माथे पर छोटी छोटी बूंदे उभर आईं। क्यों मिलना चाहता है वह? कैसे जा सकेगी वह? ऐसे ही कई सवालों ने उसे घेर लिया। मुँहदिखाई की रस्म के लिए गाँव की औरतों का आना शुरू हो गया था। ऐसे माहौल में उसके लिए बाहर निकल पाना मुश्किल था।
दोपहर ढलने तक हवेली की चहल पहल कम हो गई तो कजरी ने घड़ी देखी, पाँच बजने वाले थे। दिन भर की थकान उस पर हावी होने लगी थी। रात में भी तो नही सो पाई थी वह। कमरे में आई तो एक बार पुर्जा खोल कर पढ़ा। आखिरी पंक्ति पर उसकी नजरें अटक गईं - "तुम्हारे न आने तक तुम्हारे इंतजार में"
तो क्या अब भी वहीं बैठा होगा वह? इस विचार से ही कजरी का जी बैठने लगा। अगर उसने कुछ देर और कर दी तो वह नही जा पाएगी। हवेली में फिर से चहल पलह शुरू हो जाएगी।
आज पहली बार कजरी सबकी नजरों से बचते हुए हवेली से बाहर निकली। पश्चिम में अस्त होते सूरज की लालिमा फैली थी जिसने उसके पीतवर्णी चेहरे को कंचन सा रंग दिया था। पूरब से आते ठंडी हवा के थपेड़े उसके दुशाले को रह रह कर उड़ा रहे थे। उसने कस कर दुशाले को लपेट लिया, डर से या ठंड से यह तो वह भी न समझ सकी। खण्डहर की दीवार दिखाई देने लगी थी। कुछ आगे जाने पर उसे सीढ़ियों पर दुशाला लपेटे बैठे एक आदमी की झलक दिखी। ठिठक कर रुक गई कजरी। अगर वह रूप न होकर कोई और हुआ तो? सीढ़ियों पर किसी की आहट पाकर सिर उठाया रूप ने तो एक ही पल में कजरी का संशय मिट गया। हवेली से यहाँ तक कि दूरी उसने जितनी फुर्ती से तय की थी उससे कहीं ज्यादा समय उसे चार कदम चलने में लगा।
रूप के चेहरे पर उसका मौन बोल रहा था। लेकिन... चेहरे की चमक.....। कजरी ने देखा - किसी खूबसूरत फूल के मुरझाने से पहले की अवस्था थी वह। मुस्कुराती आँखों के चारों ओर काले घेरे बन गए थे; चेहरे की चमक जाने कहाँ गुम हो गई थी; तनी हुई बलिष्ठ भुजाएँ जैसे अपनी सारी ताकत खो चुकी थीं। कजरी को पहली बार देखा रूप का चेहरा याद हो आया।
" आज भी वैसी ही दिखती हो, बिल्कुल मेरी तस्वीर जैसी।" रूप ने कहा तो कजरी ने अचानक अपनी नजरें उसके चेहरे से हटा लीं, लेकिन उन नजरों में तैरते अनेकों सवाल रूप ने पढ़ लिए थे।
" तुमसे किए वादे को अब तक निभाता आया हूँ और मरते दम तक निभाऊंगा। सिर्फ एक बार अपने बेटे को देखना चाहता था। मृत्यु मेरे द्वार तक पहुँच चुकी है, उसके भीतर आने से पहले एक बार जी भर कर उसे देखना चाहता था औऱ देखो अल्लाह ने मुझे अपने बेटे को दूल्हे के रूप में देखने का मौका दे दिया। कितना खुशनसीब हूँ मैं। " हौले से मुस्कुरा दिया रूप। बोलना चाहने पर भी आज कजरी को शब्द नहीं मिल रहे थे।
" बिल्कुल मुझ पर गया है।" स्वयं में ही डूबे रूप ने कहा।
" हुआ क्या है तुम्हें?" कजरी के होंठ पहली बार खुले। रूप ने जैसे उसकी बात सुनी ही नहीं। बोला-
" जब जब भी कैनवास पर तूलिका चलाता वो तुम्हारा ही अक्स उकेरने लगती, तंग आकर मैने उसे पकड़ना ही छोड़ दिया। कई बार मन किया कि तुम्हे देख आऊँ लेकिन न आ सका। आज जिंदगी के अंतिम पड़ाव पर तुम्हें और अपने बेटे को देखने का मोह नहीं त्याग सका। हो सके तो मुझे माफ़ कर देना।"
कजरी की आँखों से आँसू किसी बरसाती नदी की भांति उफ़न कर बह चले जिनके साथ बरसों से भीतर जमा अनजाना डर भी बह गया।
" तुम्हारी अहसानमंद हूँ रूप , अगर तुम न होते तो मैं शायद कभी भी अपने पिता समान श्वसुर की इच्छा पूरी नहीं कर पाती , इस गाँव को हवेली का वारिस कभी नहीं दे पाती। कैसे बताती उस पिता को,उसका बेटा कभी उन्हें पोता नही दे सकता , जो हर पल अपने पोते को पाने की चाह में जी रहे थे। एक ब्याहता होते हुए भी मैं कलंकित हुई , लेकिन मेरे इस एक कलंक ने सारे गाँव को और मेरे पिता को असीमित खुशियाँ दीं हैं। सच कहती हूँ रूप कि अपने उन पिता के सामने जिन्होंने मुझे इतना प्यार दिया , मुझे मेरा कलंक भी बौना महसूस होता है।"
" देह कभी कलंकित नहीं होती कजरी , मन का पाप हमे कलंकित करता है , जिसके मन में पाप न हो वह कभी कलंकित नहीं हो सकता।" कहते कहते रूप की आँखों मे कजरी के लिए सम्मानपूर्ण स्नेह उमड़ आया।
" अब तुम जाओ ,तुम्हारा बेटा और बहू तुम्हारा इंतजार कर रहे होंगे।" रूप ने कहा तो कजरी को ध्यान आया कि वह किस तरह हवेली से निकल कर आई थी। सूरज डूब चुका था और चारो ओर अंधकार छाने लगा था।
" लेकिन तुम्हे हुआ क्या है?" इतना ही बोल पाई वह कि रूप बोल पड़ा " मेरी बीमारी उस अवस्था मे है जहाँ उसका कोई इलाज नहीं है। चंद दिनों का मेहमान हूँ।" हल्के अंधकार ने रूप के चेहरे को घेर लिया था। कजरी को लगा ये अंधकार पूरा का पूरा उसे निगल जाना चाहता है।
" मेरी एक अंतिम इच्छा और पूरी करोगी कजरी?" कजरी ने धीरे से हाँ में गरदन हिला दी , उसके आँसू पूरे वेग से बह चले थे।
" मणि और उसकी दुल्हन के सिर पर एक बार मेरी ओर से प्यार भरे आशीर्वाद का हाथ फेर देना। " फिर आसमान की ओर देख कर बोला - " मेरा सूरज डूब चुका है कजरी लेकिन देखो तुम्हारा चाँद निकल आया है और जैसे जैसे रात गहराएगी यह अपने पूरे शबाब पर होगा। अब लौट जाओ कजरी , अलविदा!"
हल्की चाँदनी चारों ओर फैलने लगी थी , भारी कदमों से कजरी हवेली की ओर लौट गई।
कजरी तो हवेली लौट गई लेकिन वहाँ कोई औऱ भी था जिसके लिए हवेली पहुँचना मुश्किल हो गया था। न जाने कितनी देर से खंडहर की दीवार से सटे खड़े चौधरीजी के लिए अब वहाँ खड़े रहना भी मुश्किल हो गया था। दीवार से टिक कर बैठ गए वे।
काश वे मंदिर न आए होते.....
काश वे कजरी को यहाँ आते न देखते.....
काश उन्होंने वह सब कुछ न सुना होता-----
काफी देर तक अपने विचारों के मंथन में डूबते उतराते रहे वे , फिर अचानक खड़े हो गए , जैसे किसी निर्णय पर पहुँच गए हों।
नहीं! वे कजरी की बरसों की तपस्या को भंग नहीं होने देंगे। इतने बरसों तक जिस राज को उसने कभी उजागर नहीं होने दिया उसे वे कभी उजागर नहीं करेंगे। मणि उनका पोता था औऱ हमेशा रहेगा। मणि की याद आते ही उनका चेहरा खिल उठा। कल ही तो उसकी शादी हुई है, उन्हें तो खुश होना चाहिए , उन्हें रोना नहीं है औऱ उन्होंने अपने आँसू पोंछ डाले। अचानक उनके कदमों में स्फूर्ति आ गई। उन्होंने गर्व से अपना सिर ऊँचा किया और तेज तेज कदमों से हवेली की ओर चल दिये।

 

टिप्पणी/समीक्षा


आपकी रेटिंग

blank-star-rating

लेफ़्ट मेन्यु