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वो - जो ट्रेन में मिली

यूँ तो बारिश के पानी का कोई रंग नहीं होता, किन्तु जब बरसता है तो सारी कायनात को रंगीन बना देता है। तीन दिन की बारिश ने प्रकृति में चारों ओर जीवंतता भर दी थी।  हर ओर हरियाली दिखाई देने लगी।  खेतों में गेहूँ की हरी बालियां निकलनी प्रारम्भ हो चुकी थी । इन हरी-भरी बालियों के खेतों के बीच-बीच में सरसों के पीले-पीले खिले हुए फूलों की छटा निराली तो होती ही है, परन्तु इन सब का आनन्द शहरों में बने कंकरीट के भवनों में रहने वाले लोगों के लिये दुर्लभ ही है।

मेरी पारिवारिक पृष्ठ भूमि न तो पूरी तरह ग्रामीण की ही है और न ही शहरी । हाँ, आप अर्धशहरी अवश्य कह सकते हैं !

मेरे पिता एक सम्पन्न कृषक थे । उन्होंने मेरी पढाई के लिये मेरा नाम लखनऊ  के अच्छे स्कूल में लिखवा दिया था। उस समय मैं चौदह वर्ष का था और कक्षा नौ में पढ़ने हेतु लखनऊ भेज दिया गया था।स्कूल के हास्टल ही मेरे रहने के ठिकाने थे।

लगातार नौ वर्षों तक शहर के विभिन्न स्कूलों के भिन्न-भिन्न हास्टलों में रहकर पढ़ाई करता रहा । हाईस्कूल, इण्टर, बी.ए. और फिर एम.ए.। मैं कभी भी बुरा स्कॉलर नहीं रहा, किन्तु प्रथम श्रेणी का भी नहीं रहा था। मेरी शिक्षा से चाहे मैं सन्तुष्ट हूँ या न हूँ, मेरे शिक्षक मुझे चाहे जो समझें, मेरे साथी मुझे पढ़ाई करने वाला समझे या न समझे किन्तु घर में मुझे बहुत होनहार और उच्च शिक्षित हमेशा माना जाता रहा।  इस दौरान मेरे पास पैसों की कभी कमी तो नहीं रही किन्तु ऐसा भी नहीं रहा जिससे मेरी कोई बुरी संगत बने । स्कूल और कॉलेज में भी मुझे दब्बू और अपने काम से काम रखने वाला ही माना जाता रहा था। इसके अपने फायदे भी  थे और नुकसान भी । फायदा यह था कि मुझे कभी भी किसी ने कुछ न तो बुरा कहा और न ही किसी ने बुरा समझा और नुकसान यह कि मुझे कभी भी किसी काम के लिए उपयोगी नहीं समझा गया, फिर चाहे मैटर पढ़ाई का हो या खेल-कूद का अथवा स्कूल और कॉलेज में होने वाले सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक समारोहों का हो मुझे कभी उसमें अपनी भागीदारी करने का अवसर नहीं मिला और न ही मैंने अपनी ओर से कोई कोशिश ही की ।  मैं स्वयं से सन्तुष्ट रहा तो लोग और यह दुनिया मुझसे अनजान!

अपनी नौकरी के लिये मैं बैंक, रेलवे, एस.एस.सी. से लेकर आई.ए.एस. तक की प्रतियोगिता परीक्षाएं दे चुका था।

किन्तु सफलता कही नहीं मिली थी और घर रहकर कृषि के कार्यों में मैं अपना कुछ योगदान दूँ यह न तो मुझे पसन्द था और न ही मैं इसके योग्य ही स्वयं को समझता था। घरवाले भी मुझे इस काम को करते हुए देखना नहीं चाहते थे।

एम0ए0 करने के बाद दो वर्ष और शहर में प्रतियोगिता परीक्षाओं की कोचिंग करने हेतु रहा था, किन्तु परिणाम अभी तक शून्य से ऊपर नहीं गया था। इससे मैं हताश और निराश हो रहा था किन्तु मेरे घर वालों ने अभी तक अपनी आश नहीं छोड़ी थी। उनके लिये मैं अभी तक राजा बाबू ही था और सच तो यह भी है कि उन्हें पता भी क्या था कि मैं शहर में क्या कर रहा हूँ ? कठिन और गलाकाट प्रतियोगिता के इस दौर में मेरी स्थित क्या है यह मैं तो अब समझने लगा था किन्तु मेरे घर वाले अनजान ही थे। शायद इसका कारण यही रहा होगा कि उन्होंने कभी इस प्रतियोगिता का सामना नहीं किया था। उनकी जिन्दगी काफी सरल और स्वाभाविक थी।  मुझ से उनकी अपेक्षाओं का होना सहज मानवीय अपेक्षाओं के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। अभी तक मैं अपनी वास्तविक उम्र से आठ – दस वर्ष पीछे ही रहा था जिस कारण मेरे समझ में सच्ची और व्यवहारिक बातें या दांव-पेंच काफी देर से आते थे। समय बहुत तेज था और मैं बहुत पीछे। वास्तव में देखा जाये तो घुटन तो अब मुझे भी होने लगी थी किन्तु कुछ कह नहीं पा रहा था और कहूँ भी तो किस से!  शहर में दोस्त नहीं थे तो घर में न समझते हुए केवल आपेक्षा रखने वलो लोग थे। और अब मैं अपनी वस्तु स्तिथि से अनजान तो नहीं रह गया था किन्तु वास्तविक समस्याओं का हल भी नहीं निकाल पा रहा था।

तीन दिन तक लगातार बारिश होने के बाद उस दिन की सुबह  मौसम थोड़ा साफ हो गया जिस दिन मुझे एक प्रतियोगिता परीक्षा देने हेतु सुबह की ट्रेन से दिल्ली जाना था। मेरे लिये बहुत सुखद भी था, क्योंकि मैं पहली बार किसी काम से दिल्ली जा रहा था।  ट्रेन की टिकट मैंने पहले ही ले ली थी और सबसे विशेष बात यह थी कि मैंने इस प्रतियोगिता परीक्षा के लिये काफी जम कर तैयारी की थी। छः माह की कोचिंग भी की थी और मुझसे जितना अधिक से अधिक हो सकता था उतनी मेहनत की थी। फिर भी जाने क्या बात थी मुझे आपने आप पर पूर्व विश्वास नहीं हो पा रहा था।  मेरे ऊपर बैक बेन्चर का ठप्पा जो लगा था, जो मुझे आगे बढ़ने से हमेशा रोकता रहा और आज भी इसमें कोई विशेष फर्क नहीं था।

 

एक ओर दिल्ली जाने का रोमांच तो दूसरी ओर परीक्षा का डर अपने दिलो-दिमाग में लिये मैं सुबह साढ़े पांच बजे की ट्रेन पकड़ने के लिये चार बजे ही घर से रेलवे स्टेशन की ओर निकल पड़ा।  थोड़ी दूर पैदल चलने के बाद मुझे आटो रिक्शा मिल गया था और मैं साढ़े चार बजे के आस-पास लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नं0 एक पर पहुंच गया था जहां से मुझे दिल्ली की ट्रेन पकड़नी थी।

ट्रेन ने थोड़ी रफ्तार पकड़ ली थी। जिस गति से ट्रेन आगे की ओर दौड़ी जा रही थी उसी गति से खिड़की से बाहर के दिखाई देने वाले दृष्य पीछे की ओर छूटते जा रहे थे।  पहले कंकरीट के बने मकान छूटते रहे फिर, हम हरे-भरे खेतों से गुजरने लगे। जब पानी के बरस जाने के बाद किसान अपने-अपने खेतों में काम कर रहे थे, चारों ओर हरियाली बिखरी हुई थी। बीच-बीच में कही-कहीं पानी भरा हुआ दिखाई दे रहा था किन्तु चारों ओर पानी के बरस जाने के बाद के चिन्ह दिखाई दे रहे थे, ट्रेन की लाइन के किनारे एक्का - दुक्के मकान भी थे और कही-कहीं छोटे-छोटे गाँव भी।  इन घरों से बाहर निकल एक एक-दो बच्चे कभी भी कही ट्रेन में बैठे लोगों का हाथ हिला कर अभिवादन भी करते दिख जाते।  मैं भी कई बार इस अभिवादन का उत्तर अपना हाथ हिला कर दे चुका था। ट्रेन के बाहर फिसलते जा रहे दृश्यों पर मैं इस तरह से मुग्ध था, तभी मेरे साथ वाली सीट जो कि बीच में थी उस पर आकर कोई लड़की बैठ चुकी थी इसका मुझे पता ही नहीं चला।

ट्रेन गंगा नदी को पार करने हेतु थोड़ी धीमी हुई थी किन्तु मेरी चेतना अभी खिड़की के बाहर प्रकृति के मनोरम दृष्यों के बीच ही उलझी हुई थी। गंगा नदी को ट्रेन ने पार किया तो फिर कंकरीट के मकान दिखने शुरू हो गये।  मैं अपनी सीटपर सीधे होकर जैसे ही बैठा मुझे एहसास हुआ कि मैं गलत सीट पर हूँ। मेरी सीट तो बीच वाली है किन्तु अब मैं कर भी क्या सकता था।  माफी मांगना चाहता तो था किन्तु संकोच मुझे बोलने नहीं दे रहा था।  मुझे जाने क्यूं ऐसा लग रहा थाकि मेरी वजह से उस लड़की को असुविधा हुई होगी, किन्तु उसने किसी कारण से कुछ कहा नहीं । मैं अपने उधेड़ बुन में था कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि उससे असुविधा के लिए क्षमा मांगू या उसकी सीट पर बैठे होने पर भी उसके द्वारा कुछ न कहने के लिये उसे धन्यवाद दूँ या फिर ऐसा और भी कुछ ऐसी परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिए यह भी मेरी समझ में नहीं आ रहा था।

ट्रेन ‘कानपुर’ रेलवे स्टेशन पर खड़ी हो चुकी थी और स्टेशन पर चाय, बिस्कुट, पानी और कोल्डड्रिंक बेचने वाले डिब्बे में घुसकर अपना-अपना समान बेचने के लिए आवाजें लगा रहे थे। मैं अभी तक उहा - पोह में ही बैठा रहा था। मेरे चहरे पर कई सारे भाव एक साथ उभर रहे थे और मैं उन्हें अपनी कोशिश भर दबाने और छिपाने का भरसक प्रयास कर रहा था किन्तु मुझे सफलता नहीं मिल रही थी। मेरी समझ और परिस्थिति को शायद उसने पहचान लिया था, और वातावरण को सरल बनाने के लिये उसने सहज ही पूछ लिया ‘‘आप कहां तक जायेंगे?“

 “मुझे माफ कीजियेगा, आप काफी देर तक नहीं आयी तो मैं आप की सीट पर बैठ गया था।“ मैंने कहा और सीट बदलने के लिये खड़ा हो गया।

मेरे खड़े होने के उद्देश्य को वह समझ गयी थी, ऐसा मुझे लगा।उसने कहा, “मैंने सीट बदलने के उद्देश्य से नहीं पूछा था। आप बैठिए, कोई बात नहीं है।“

यह सुन मैं थोड़ा सहज हो गया था और फिर वापस उसी सीट पर बैठ गया। जाने क्यूं उससे कुछ और बात करना चाहता था किन्तु क्या कहूँ यह समझ में नहीं आ रहा था। मेरी स्थिति को वह फिर शायद समझ रही थी तभी तो बिना किसी विशेष भूमिका के उसने अपना नाम बताते हुए मेरा पूछ लिया-

“मेरा नाम ‘नीलांजना’ है किन्तु सभी मुझे नीलू कहते हैं और आप का?‘‘

मैं फिर असहज हो गया था किन्तु उसके विषय में और जानने के लिए उत्सुक भी हो रहा था।  अपने आप पर किसी प्रकार संयम रखते हुए मैंने धीरे से कहा “मेरा नाम ‘दिव्य प्रकाश’ है।“

“क्या मैं आप को ‘दिव्य’ बुला सकती हूँ ?“

“हाँ अवश्य।“ यह मैं ने कैसे कहा स्वयं भी नहीं समझ पाया। किन्तु इससे मुझे थोड़ा आत्मबल अवश्य मिला था।

मेरा संकोच अभी समाप्त नहीं हुआ था परन्तु मैं स्थिर और सरल अवश्य हो चुका था।

“दिल्ली क्यूं जा रहे हो?“ इस प्रश्न की अपेक्षा नहीं की थी परन्तु प्रश्न था बिल्कुल स्वाभाविक और फिर मैंने भी बिना किसी अतिरिक्त औपचारिकता के कह दिया ‘‘प्रतियोगिता परीक्षा देने।“

“अच्छा! उसने फिर बड़ी सहजता से कहा था, ‘‘मैं गाजियाबाद जा रही हूँ, कॉलेज से अपनी डिग्री लेने।“

“आपकी पढ़ाई पूरी हो गयी।“ इस बार मैं थोड़ा सहज रहा था।

“हाँ। मैं एम0 ए0 कर चुकी हूँ।‘‘

मैंने मन-ही मन सोचा कि मैं तो दो वर्ष पहले ही एम0 ए0 कर चुका हूँ ‘अर्थशास्त्र’ में ।

बात को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से मैंने यू ही पूछ लिया ‘‘किस विषय में ?“

“समाज शास्त्र में और अब आगे अपना पारम्परिक व्यवसाय ‘कृषि’ करने का विचार है ।  

कोई लड़की ‘कृषि’ खेती को अपनी अजीविका का साधन बनाना चाहती है यह मेरे लिये अप्रत्याशित था। मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता था किन्तु अब मेरी उसमें उत्सुकता काफी बढ़ चुकी थी।  इसका एक कारण यह भी था कि अब मैं उसके साथ काफी सहज हो चुका था किन्तु पूरी तरह नहीं, शायद संकोची होना मेरे स्वभाव तथा परिवेश में था।

मेरा संकोच ही मेरी सीमा रेखा को काफी छोटा बना रहा था। उसके सामने मैं अपने आप को बौना महसूस करने लगा परन्तु किसी प्रकार स्वयं पर नियंत्रण करते हुए मैंने धीरे से पूछा- “कृषि, खेती करने का विचार आप को कैसे आया?“

“कृषि मेरे परिवार का पारम्परिक व्यवसाय है । मेरे पिता और उनके पिता जी भी खेती करते थे और फिर कृषि कोई छोटा काम तो है नहीं।“

“काम भले ही छोटा न हो किन्तु इतनी पढ़ाई के बाद कृषि का व्यवसाय चुनना क्या उचित है?’’

“मैं समझती हूँ एक पढ़ा लिखा व्यक्ति ही अपने सभी कार्यों को कुशलता से कर सकता है और कृषि कार्य को भी।“

हमारे बीच थोड़ी देर तक मौन पसरा रहा।  मैं उसके तर्क से असहमत रहने का कोई कारण नहीं समझ पा रहा था।  

वह थोड़ी देर तक मेरी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखती रही।  मैं उसके चेहरे पर विश्वास और आत्म सम्मान की झलक देख रहा था। उसकी बात का मेरे पास कोई तर्क पूर्ण उत्तर नहीं था तो मैं चुप ही रहा।  मेरी ऊहा-पोह की स्थिति को उसने फिर समझ लिया और अत्यन्त शान्त भाव से कहा, ‘‘मुझे लगता है कि आज की युवा पीढ़ी एक बार डिग्री प्राप्त कर लेने के बाद नौकरी की ओर भागने लगती है।  कई बार सफलता नहीं भी मिलती है क्योंकि देश में नौकरियों के उपलब्धता की सीमा है और मांगने वाले बहुत ज्यादा।“

थोड़ी देर ठहर कर उसने कहना जारी रखा,“मेरा तो स्पष्ट रूप से मानना है कि रोजगार केवल नौकरी ही नहीं है, हमारे आस-पास बहुत सारे व्यवसाय भी हैं  और कृषि भी।“

अपने आप को स्थिर करते हुए मैंने धीरे से कहा-  ’’मेरी समझ से आज का शिक्षित युवा अपने परिवेश की अवधारणाओं के कारण नौकरियों की ओर भागता है जो कि नौकरियों के प्रति ज्यादा सहज और सरल है।“

“एक बात फिर से विचार करें परिवेश को बनाने वाले कौन हैं, हम सब ही तो हैं न, और फिर क्या आज का युवा अपना परिवेश बना नहीं सकता, वह पूर्व से निर्मित धारणाओं को स्वीकार क्यों कर लेता है।“उसके जवाब सुन कर एक बार फिर मेरे पास कोई उत्तर नहीं था।

यह सही तो था कि अपने परिवेश, वातावरण निर्मित करने वाले हम स्वयं ही तो हैं, फिर कोई और इसके लिए जिम्मेदार कैसे हो सकता है?

हमारी ट्रेन ’इटावा’ पहुँच गयी थी ।  उस लड़की के बगल में बैठे हुए अंकल ट्रेन से उतर गये  और एक आंटी जो आंटी लग तो नहीं रही थी, आकर बैठ गयी।हमारे सामने की सीट पर बैठे एक दम्पत्ति ने चाय वाले लड़के से चाय खरीदी।  चाय वाला लड़का हम दोनों से भी चाय लेने की उम्मीद कर रहा था किन्तु हम चुप रहें तो वह निराश हो कर चला गया।

ट्रेन ने फिर एक बार रफ्तार पकड़ ली थी। ’नीलंजना’ की बगल वाली सीट पर बैठी हुई आंटी जी ने मुझसे खिड़की की सीट पर बैठने का आग्रह किया तो मैं सहर्ष अपनी सीट से उठ कर उनकी सीट पर बैठ गया।  आंटी जी मेरी सीट को पा कर काफी प्रसन्न हो गयी थीं ।  उन्होंने मुझे धन्यवाद कहा तो मैंने भी बहुत औपचारिक रूप से कह दिया ’’कोई बात नहीं, आंटी।“

 मेरे द्वारा आंटी कहे जाने से वह खुश नहीं हुई थीं, उन्होंने मेरी और प्रश्नवाचक दृष्टि से घूरते हुए देखा किन्तु कहा कुछ नहीं, उनके चेहरे से स्पष्ट दिख रहा था कि मेरे आंटी कहने से वे असहज हो गयीं है और मुझसे नाराज भी, अचानक से उनके साड़ी का पल्लू छूट कर गिर गया जिसे उन्होने जल्दी से किसी तरह सम्हाला और चुप - चाप अपनी सीट पर बैठ गईं।

’नीलंजना’ अब मेरी बांयी ओर थी और मैं भी थोड़ा सहज हो गया था । बात-चीत का सिलसिला फिर चल पड़ा। बातें तो कृषि की हो रही थी तो विषय मैं नहीं बता सका।यद्यपि मुझे कृषि कार्यों में न तो कोई रूचि थी और न ही कोई विशेष जानकारी किन्तु वह पिछले दो वर्षों से कृषि को एक व्यावसाय के रूप में अपना कर कुशलता पूर्वक काम कर रही थी।

वह इस क्षेत्र में काफी परिपक्व और जानकर हो गयी थी, कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगा।

कहते हैं व्यक्ति के सामने कोई समस्या हो तो समाधान के लिए संघर्ष अवश्य करना पड़ता है और संघर्ष व्यक्ति को परिपक्व और अनुभवी बनता है। असफलताएं सीखने का प्लेटफार्म तैयार करती है और सफल होने का रास्ता भी सुझाती है। अब इसे मैं अपना सौभाग्य समझूं या दुर्भाग्य अभी तक हमारे सामने कोई समस्या ही नहीं आयी थी, तो समाधान के लिये कोई संघर्ष भी नहीं करना पड़ा था। मैं सोचने लगा लगभग मेरी ही उम्र की एक लड़की जो मेरे साथ बैठी है वह देश, समाज, परिवार और अपने पूरे परिवेश को कितनी सच्चाई से समझती है। मैं इसका एक प्रतिशत भी नहीं जानता । अभी तक मेरे सामने अपने देखे हुए सपने नहीं थे, मैं अपने माता-पिता और परिवार की महत्वाकाक्षाओं को पूरा करने मैं ही लगा रहा था जिसमें भी मुझे अभी तक कोई सफलता नहीं मिली थी। सपने अपने हो तो संघर्ष का मार्ग स्वयं ही दिखाई देता है, यह एक छोटी सी बात मैं अब समझ सका था। मुझे विचारों में कहीं गुम देखकर सहसा उसने मेरे हाथ को पकड़ कर झझकोरते हुए पूछा, ’’कहां खो गयें, दिव्य तुम?“

अचानक से पूछे गये इस सवाल का जवाब में क्या कहूँ, कुछ समक्ष में नहीं आया तो मुंह से अनायास से निकल गया, “कुछ नहीं।“

“यह नहीं हो सकता ‘दिव्य’, आप कही खो गये थे।“

सीट पर अपनी स्थिति को बदलकर, अब मैं कुछ और सहज हो गया, तो मैंने धीरे से उत्तर दिया,“कृषि के व्यवसाय के सम्बन्ध में आप की बातों से मैं काफी प्रभावित हो गया था। सोचने लगा था कि मैं नौकरी की ओर ही क्यों भाग रहा हूँ।“

“नौकरी पाने के लिये प्रयास करना कुछ बुरा नहीं है, दिव्य! मेरा तो बस इतना मानना है कि देश में नौकरियों की सीमा है जब की दूसरी ओर कृषि और व्यापार एवं अन्य में अपार सम्भावनाएं हैं, तो केवल नौकरी के लिये अंधी दौड़ क्यों।“

“अपने माता-पिता की आशाओं और अपेक्षा को पूरा करने हेतु।“

“अक्सर हमारे माता-पिता हमसे वह प्राप्त करने की अपेक्षा करते हैं, जो वे स्वयं नहीं प्राप्त कर सके होते हैं।“

नीलांजना की बात सही थी। मैं सहमत था क्योंकि मैं भी अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को पूरा करने में लगा रहा और कभी अपनी कोई महत्वाकांक्षा, कोई उद्देश्य, कोई अपने भविष्य के लक्ष्यों की कोई दिशा या रूपरेखा का निर्माण नहीं कर सका था। यही कारण है कि अभी तक भटकता ही रहा, पर बिना किसी निश्चित और निर्धारित योजना और सपने के।

“दिव्य...” मुझे विचारों में खोया हुआ देखकर उसने मुझे फिर से पुकारते हुए कहा, ‘‘लक्ष्यहीन जीवन का कोई मतलब नहीं है और इधर - उधर चारों ओर भटकने को जीवन नहीं कहा जा सकता।“

उसकी बात से मैं पुनः वास्तविक दुनिया में लौट आया तो फिर मैंने कहा, “बात तो आप की ठीक है किन्तु ...हम जैसे अधिकतर दिशाहीन युवा समाज या परिवार द्वारा पूर्व से ही खींची हुई लकीरों पर चलने के लिए बाध्य है।“

“हमारी जिन्दगी अपनी है तो फिर हमारे रास्ते और लक्ष्यों की लकीरें खींचने का अधिकार कोई और क्यूं ले।“

“यही एक बात समझाने वाला अभी तक मुझे कोई और नहीं मिला था।“

“यह समझना भी आप की अपनी जिम्मेदारी है। किसी और को क्या हक है कि वह हमें समझाये।“

 बात तो यह भी ठीक थी और मेरे पास इसका कोई उत्तर नहीं था और मैं फिर ट्रेन के डिब्बे में इधर-उधर देखने लगा।

हर कोई अपने आप में सिमटा हुआ बैठा था एक-दो लोग आपस में बातें कर रहे थे। ट्रेन अपनी गति से चल रही थी।अपने अन्दर साहस बटोरते हुए मैंने सहसा पूछ लिया, ’’आपने कृषि कार्य या व्यवसाय को ही कैसे और क्यों चुना ?“

’’मेरे पिता जी के पास विरासत में मिले कुछ खेत थे, किन्तु उससे हमारे परिवार का पालन-पोषण ठीक से नहीं हो पाता था । पिता जी गांव के उन लोगों के खेत जो स्वयं कृषि कार्य नहीं करना चाहते थे, उनसे उनके खेतों को बाटई पर,इसे आज की भाषा में कॉन्टैक्ट कृषि कह सकते हैं, को लेकर अपना काम चलाते थे, फिर दो साल पहले मैं पढ़-लिख कर बड़ी हो गयी तो सोचा क्यों न पिता जी के इसी कार्य को आधुनिक तरीके से किया जाय। फिर क्या था, केवल शुरुआत करने की देर थी। पहले वर्ष से ही अच्छी आमदनी शुरू हो गयी। अब मेरा परिवार भी प्रसन्न है और वे भी जिनके खेत हमने बटाई या कॉन्टैक्ट पर लें रखे हैं, उन्हें भी अब पहले से बेहतर इनकम प्राप्त होती है।“

मैं सोचने लगा मेरे पास तो अपने खेत है और हम नौकरी के लिये इधर-उधर मारे - मारे घूम रहे हैं।

“तुम जानते हो दिव्य...“उसकी आवाज में एक अजीब सा आकर्षण था मैं पुनः उसकी ओर किसी अज्ञात आशा, उत्साह और जिज्ञासा से देखने लगा किन्तु नीलंजना ने कहना जारी रखा, ’’जिसे कर्म करना और जीना आता है वह बिना किसी सुविधा के भी खुश मिलेगा और जिसे जीना नहीं आता वह सारी सुविधओं के होते हुए भी दुखी मिलेगा क्योंकि आनन्द एक एहसास है, जिसके साथ आप कुछ और बांध नहीं सकते और न ही उसके बदले कुछ और प्राप्त कर सकते हैं।“

दुनिया भर के सारे आडम्बरों से मुक्त ‘नीलंजना’ का सौन्दर्य मुझे अपनी ओर सहज ही खींच रहा था। उसका सहज प्राकृतिक वैभव मेरे मन को अपनी ओर आकर्षित रहा था और मैं उसके मोह - पाश में धीरे - धीरे बंधने लगा।मेरे लिये यह एक नया अनुभव था इसके पहले मुझे इस तरह का एहसास कभी नहीं हुआ था। इस अनुभव से मैं पूरी तरह अविभूत था, किन्तु मैंने संयम बनाये रखना उचित समझा और कुछ बोले बिना ही उसकी ओर देखता रहा। उसके शान्त चेहरे पर विश्वास की चमक थी, उसकी सरल मुस्कुराहट मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रही थी। मैंने सोचा कोई भी मतलबी रिश्ता कोयले की तरह होता है जब गरम होता है तो हाथ जला देता है और जब ठंडा होता है तो भी हाथ काले कर देता है। मैं अपने को मतलबी साबित नहीं करना चाहता था, अतः चुप ही रहा।

 ट्रेन धीरे-धीरे गाजियाबाद रेलवे स्टेशन पर खड़ी हो चुकी थी। नीलांजना ने अपना बैग उठाया और मुझे बाय!कहते हुए ट्रेन से बिल्कुल साधारण तरीके से उतर गयी, जैसे उसकी किसी से मुलाकात ही न हुई हो ! मैं दूर तक अपलक अपने हृदय में गुलाब के खिले हुए फूल की तरह उसके साथ की सुगंध को समेटे, उसे दूर तक जाते हुए देखता रहा।

आज पांच वर्ष बीत चुके हैं मगर कहते है न कि यादें खुशबू की तरह होती है, चाहे कितनी भी खिड़की- दरवाजे बन्द कर लो, हवा के झोंके के साथ अन्दर आ ही जाती हैं। उसने कहा था, ’’अगर हारने से डरते हो तो जीतने की इच्छा कभी मत रखना।“ नीलांजना की इस बात को मैंने गांठ बांध कर हमेशा के लिये अपने हृदय में सुरक्षित रख ली थी।

उस दिन नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरने के बाद मैंने वहीं होटल में एक कमरा ले लिया और दो दिन दिल्ली घूमने और फ़िल्में देखने के बाद के बाद बिना प्रतियोगिता परीक्षा में शामिल हुए वापस लखनऊ लौट आया। लगभग एक सप्ताह तक लखनऊ में इधर - उधर बेवजह घूमने या सच कहे तो भटकने के बाद फिर अपना सारा समान ले कर वापस अपने छोटे से नगर में आ गया। मेरे घर में मुझसे किसी ने कुछ नहीं कहा और न ही कुछ पूछा शायद वे समझ रहे थे कि मैं असफल हो कर वापस लौटा हूँ और मुझे कुछ दिन आराम करने की जरुरत है।

मैं यह सब मन ही मन समझ समझ रहा था उस समय कुछ भी कहना उचित नहीं था,किन्तु मैं दृढ़ संकल्प के साथ कृषि कार्य में अपने पिता का सहयोग करने के उद्देश्य से वापस लौट आया था। केवल पांच वर्षों में हमारे परिवार की आय इतनी हो चुकी थी कि हमने कार खरीद ली! लखनऊ की गालियों से मैं परिचित था अतः अपनी पत्नी के साथ मैं कभी-कभी घूमने जाया करता था। ‘नीलांजना’ से फिर कभी मुलाकात नहीं हुई किन्तु उसकी प्रेरणा ने मेरी सोच का दायरा बढ़ा दिया था। मैं जानता हूँ ‘नीलांजना’ मेरे लिये ट्रेन वाली सौभाग्यशालनी लड़की हमेशा बनी रहेगी।

 

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