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जीवन का सफर



                            मेरा बचपन 

         मैंने होश संभाला तो याद है, घर के पास हरड के पेड़ से रात में जुगनू जलते बुझते नजर आते थे। कभी हवा तेज होने से नीचे आ जाने पर, मैं उन्हें पकड़ने का प्रयास करता था। कभी-कभी इन प्रयासों में सफल भी हो जाता तो जुगनू को खाली माचिस की डिब्बी में बंद कर देता। जब सवेरे उनकी याद आती तो जुगनू में लाइट ना देखकर उसे उड़ा देता। बरसात के दिनों में, घर के पीछे वाले बरसाती नाले में, मैं अपनी दीदी से कागज की नाव बनवा कर तैराता था। पानी के साथ बहती नाव मुझे बहुत अच्छी लगती थी। कभी-कभी, मैं उसमें चींटें को नाव में बैठा कर नौका विहार करता था। चींटें न मिलने पर टिड्डे को नाव पर सवार कर देता था।

      हमारा घर कॉलेज के परिसर में था। कॉलेज खुलने पर काफी चहल-पहल रहती थी। कॉलेज का समय खत्म होने पर सन्नाटा छा जाता था। रात में कुत्तों के भौंकने या सियारों के चिल्लाने की आवाजें आती रहती थी। गांव में बिजली और सड़क दोनों नहीं थीं। घर में पानी बाहर लगे हैंडपंप से भरा जाता था हम बच्चे नहाना धोना हैंडपंप पर ही करते थे।

       मैं 5 साल का हो गया था। मैं कॉलेज परिसर से दो किलोमीटर दूर, गांव की प्राइमरी पाठशाला में पढ़ने जाने लगा था। वहां पैदल ही कॉलेज के स्टाफ के दूसरों बच्चों के साथ जाता था। सभी बच्चे मुझसे बड़े थे। उन्हें मैं 'दादा' कह कर बुलाता था। कभी-कभी, हम बच्चों का स्कूल में पढ़ने का मन नहीं करता था तो हम लोग आधे रास्ते से लौट कर घर वापस चले जाते थे। वर्षा काल में, बारिश अधिक होने के कारण घर में 'रेनी डे' बता देते थे। कभी कहते, स्कूल के पंडित जी (हेड मास्टर) बाहर चले गए हैं। स्कूल की चाबी किसी को दे कर नहीं गए हैं। मैं पढ़ने में बहुत अच्छा था। स्कूल के मास्टर साहब का दिया गया पाठ, बहुत जल्दी याद कर लेता था

       एक बार रास्ते में, हम लोग स्कूल से वापस घर लौट रहे थे। एक चोटिल नाग पड़ा हुआ था। हम लोग पीछे लौटे तो मेरे पापा किसी काम से साइकिल से आ रहे थे हम बच्चों को उन्होंने कहा,  "तुम दूसरे रास्ते से घूम कर घर जाना।"लेकिन हमने उनके निर्देश को नहीं माना और हम सभी बच्चे मिलकर पेड़ से टहनिया तोड़कर नाग को मार डाला। हम अपना सांप मारने का प्रशस्तिगान करते घर चले आ रहे थे तो देखा मम्मी इंतजार कर रही थी। उन्होंने पूछा, "जब पापा ने दूसरे रास्ते से आने को कहा तो तुम क्यों उस रास्ते से सांप को मारते हुए आए? यदि वह काट लेता तो क्या होता ?" साथ ही साथ, उन्होंने मेरा चप्पलों से अच्छी तरह स्वागत किया। मैंने जीवन में कभी भी सांप को न मारने की शपथ खाई।

         मेरे पापा पहले से सरकारी नौकरी के लिए आवेदन और साक्षात्कार देते रहते थे। उनका सरकारी नौकरी का नियुक्ति पत्र आ गया। उनकी जिला मुख्यालय के सरकारी कॉलेज में अर्थशास्त्र के अध्यापक के पद पर नियुक्ति हो गई।

    इसी बीच मेरी पांचवी कक्षा की परीक्षा हो चुकी थी। हमारा परिवार शहर में  स्थानांतरित हो गया। शहर में आकर, यहां की चहल-पहल, बिजली, वाटर सप्लाई और सिनेमा ने मुझे बहुत आकर्षित किया।

    मेरा कक्षा 6 में प्रवेश होना था। मेरे भाई बहन को अच्छे विद्यार्थी होने के कारण, पिताजी की सरकारी नौकरी में स्थान परिवर्तन होने के कारण प्रवेश मिल गया। किंतु मेरी कक्षा 6 में, सत्र प्रारंभ होने से पहले प्रवेश परीक्षा होनी थी। मेरे पापा शहर के सबसे अच्छे, एक गैर सरकारी कॉलेज में मेरा प्रवेश कराना चाहते थे। जिससे कि मेरी शिक्षा उच्च कोटि की हो। उन्होंने मुझे धमका दिया कि यदि इस प्रवेश परीक्षा में फेल हो गया तो तेरी शिक्षा घर पर ही होगी। मैं पूरी गर्मियों की छुट्टी में जमकर पर पढ़ाई करता रहा की कहीं मैं असफल ना हो जाऊं। मेरे लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न था। परीक्षा देने के सप्ताह भर बाद प्रवेश परीक्षा का परिणाम आया तो मैं कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर देखने लगा सफल परीक्षार्थियों की सूची को अंत से देखना शुरू किया लेकिन मेरा नाम न होने से काफी हताश हो गया और टॉप सूची तक देखा ही नहीं। घर आकर रोने लगा। पापा ने भाई को साथ भेजा और कहा, "सवाल ही नहीं उठता कि तू उस लिस्ट में न हो।" भाई ने लिस्ट ऊपर से देखना शुरू किया। मेरा नाम सबसे ऊपर देखकर भाई बोला, "तेरा नाम सबसे ऊपर है।तू टॉपर है।" मैंने लिस्ट को देखा तो वाकई मेरा नाम सबसे ऊपर था। मुझे जीवन में पहली बार अपनी क्षमता का एहसास हुआ। घर पर मम्मी पापा ने मिठाई खिलाकर मेरा टीका किया। दूसरे दिन प्रवेश लेने स्कूल गया। वहां अध्यापकों ने मेरा जोरदार स्वागत किया और कहा कि आपकी इस वर्ष पूरी फीस माफ की जाती है। केवल ड्रेस और कॉपी-किताबों के लिए निर्धारित शुल्क देना है। कॉलेज ने मेरे लिए, ₹300/- प्रति माह की छात्रवृत्ति की घोषणा कर दी। कक्षा 6 में, मैंने प्रथम आने का गौरव प्राप्त किया। आगे की कक्षाओं में, यह सिलसिला कायम रखते हुए कब, मैं किशोरावस्था की ओर चल दिया। पता ही नहीं चला।

       किशोर वय की ओर 

      हिंदी फिल्मों के प्रेम प्रसंग मुझे अच्छे लगने लगे थे। मैं उनको वास्तविक जीवन का बहुमूल्य अभिन्न अंग मानने लगा था। पड़ोस में रहने वाली रूबी मुझे बहुत पसंद थी। लेकिन वह मेरे कॉलेज में नही पढ़ती थी। मैंने एक बार उसको 'लव लेटर' लिखा। एक छोटे बच्चे, गोलू को दिया और कहा कि रूबी खेलने निकले तो उसे दे देना। मैं क्रिकेट खेलने लगा। रूबी शाम को खेलने नहीं आई तो बच्चे ने सोचा कि जाकर रूबी दीदी को दे देता हूं। शायद, भैया का जरूरी काम होगा। घर जाने पर रूबी की मम्मी ने दरवाजा खोला तो उसने रूबी के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि वह अपनी सहेली के बर्थडे में गई है। गोलू ने वह लेटर उसकी मम्मी को दे दिया और कहा कि जब रूबी आए तो आप दे देना। शाम को खेलने के बाद घर लौटा तो रूबी की मम्मी को घर पर देखकर, मैं समझ गया दाल में कुछ काला है। बाद में पापा ने मेरी खूब धुनाई की।

      मैं जूनियर कक्षाएं पास करते हुए नवी कक्षा में आ गया। मैं विभिन्न वाद विवाद प्रतियोगिताओं, कॉलेज के नाटक और एनसीसी में प्रवेश लिया। मुझे एनसीसी का बहुत आकर्षण था। खेलों में भी, मैं आगे था। बैडमिंटन और क्रिकेट खेलने का चाव रखता था।

     दसवीं के बोर्ड में, मेरा कॉलेज में प्रथम स्थान रहा। लगातार स्कूल की फीस माफ होने का नियम अभी तक प्रभावी बना रहा। दसवीं में पढ़ाई करने के वर्ष में, मैंने एनसीसी के 'बी' सर्टिफिकेट की परीक्षा पास कर ली। इसी वर्ष मैंने एनसीसी के कैंप में हिस्सा लिया। वहां ब्रेस्ट कैडेट चुना गया। साथ ही साथ 'रिपब्लिक डे परेड' में एनसीसी कर की ओर से हिस्सा लेने के लिए चुना गया। 12th की परीक्षा, मैंने विज्ञान तथा गणित विषयों के साथ दी। 95% अंक के साथ, कॉलेज में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इसी बीच, मैं एनडीए की लिखित परीक्षा पास कर ली। मुझे साक्षात्कार के लिए जाना था। फिजिकल में, मेरा पास होना तय था क्योंकि मैं खेलकूद के साथ उसकी तैयारी भी करता रहा था। इंजीनियरिंग की प्रवेश की परीक्षा के बाद, मैं एनडीए के इंटरव्यू में गया और चुन लिया गया। मैं एयरफोर्स चाहता था लेकिन रैंक कम होने से मेरा आर्मी के लिए चयन हुआ था।

            जीवन की राहों पर

       मैंने नेशनल डिफेंस अकैडमी (एन.डी.ए.) में प्रवेश ले लिया। बहुत व्यस्तता, परिश्रम और परेशान करने वाली ट्रेनिंग शुरू हो गई। प्रारंभ में लगा कि यहां से भाग लिया जाए। लेकिन भागने वालों को पुलिस फिर पकड़ कर ले आती है। अतः ट्रेनिंग पूरी करने में ही भलाई है। छ: महीने के बाद, कुछ आदत सी पड़ गई।ट्रेनिंग पूरी होने पर, मम्मी पापा मेरी 'पासिंग आउट परेड' में शामिल होने के लिए आए। मैं  भारतीय सेना में ऑफीसर बन गया।

          मेरी पहली पोस्टिंग, नागालैंड म्यांमार सीमा पर हो गई। यहां पर हमारा मुख्य कार्य विद्रोहियों को भारत - म्यांमार की सीमा पार करने से रोकना था। क्योंकि म्यांमार की सैनिक जुन्टा (सैनिक सरकार) चीन के प्रभाव में आकर विद्रोहियों की सहायता करती रहती थी। यहां पर, दो बार, हमारी छुटपुट मुटभेड़ विद्रोहियों से हुई। शेष समय शांतिपूर्ण रहा। दो वर्ष बीतने के बाद, सेना के मुख्यालय से आदेश आया कि लेफ्टिनेंट कृष्ण कुमार को तुरंत दिल्ली रिपोर्ट करने का आदेश है। उन्हें 'साएरा लियोन' में, संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना में शामिल, भारतीय सेना के साथ रहना है। संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना में कार्य करना गौरव की बात थी। साथ में वेतन भी डॉलर में और किसी दूसरे देश में कार्य करने का अनुभव मेरे उत्साह के मुख्य कारण थे। मैं गोरखा राइफल्स के साथ सेएरा लियोन जाने की तैयारी में जुट गया।

            मेरी वर्दी अब सफेद रंग की और टोपी नीले रंग की हो गई। वहाँ शांति सेना का कार्य रिवॉल्यूशनरी यूनाइटेड फ्रंट (आर.यू.एफ.) के विद्रोहियों  को हमें, शांति समझौते के तहत हथियार डलवाना था। जिससे कि चुनाव के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू की जा सके। 18-19 घंटे की हवाई यात्रा के बाद, हम सेएरा लियोन में उतर गए। लेकिन यहां पर परिस्थितियाँ एकदम विपरीत हो गई। विद्रोही समझौता मानने से मुकर गए। विद्रोहियों ने शांति सेना में आए सभी देशों के सैनिकों को हथियार और वर्दी डालने को मजबूर कर दिया। दूसरे देशों से आए हुए शांति सैनिक विद्रोहियों के सामने हथियार डालकर वापस जाने लगे। केन्या के शांति सैनिको के विद्रोहियों के सामने समर्पण के बाद, भारतीय सैनिकों को विद्रोहियों, (आर.यू. ए.) के बेस  कैम्प (कैलाहन) के क्षेत्र में भेजा गया।

 विद्रोहियों के मुख्यालय (कैलाहन) क्षेत्र में पहुंचने पर, विद्रोहियों ने हमारे कैंप को  नेस्तनाबूत कर लिया। हम पर भी हथियार डालकर वापस जाने के लिए दबाव डालने लगे। लेकिन हम, 233 भारतीयों को यह गवारा नहीं था। हमारे मेजर साहब ने, कैलाहन के नागरिकों और उनके नेताओं से वार्ता में उलझाए रखते हुए धीरे-धीरे सारी जानकारी इकट्ठा कर ली। हमारे कैंप के नेस्तनाबूत होने के कारण राशन बाहर से नहीं आ सकता था। हमारे पास राशन खत्म होने को आ गया। हमें केवल एक टाइम खाना मिलता था। 75 दिनों के बाद हम लोग एक दिन प्रातः कैलाहन पर गोलाबारी करते हुए अपने कॉनवाय को लेकर, 50 किलोमीटर दूर सुरक्षित शांति सेना के बेस कैंप पर पहुंच गए। मेरे जीवन का यह बहुत रोमांचक अनुभव था। मुझे एहसास हुआ कि मैं योग्य होने के साथ साहसी  भी हूं।

         'सेएरा लियोन अभियान' के बाद, मैं छुट्टी पर घर आया। मम्मी पापा के साथ मुझे चेचरे भाई की शादी में ग्वालियर जाना था। मेरे चचेरे भाई शासकीय महाविद्यालय में वनस्पति विज्ञान के अध्यापक थे। वे अपने साथ कार्य करने वाली अध्यापिका से प्यार करते थे किंतु घर वालों के दबाव में आकर उन्होंने यह रिश्ता स्वीकार कर लिया था। ग्वालियर में हम लोग एक होटल में ठहरे। जहां लड़की वालों ने हमारा बहुत अच्छा इंतजाम किया हुआ था। मुझे लगा कि इस रिश्ते में धन लौलुप्ता ही मुख्य मुद्दा है। बारात तैयार हो गई लेकिन दूल्हे का पता नहीं लग रहा था। हम लोगों ने काफी छानबीन की। उसका मोबाइल भी स्विच ऑफ आ रहा था। काफी समय ढूंढते, इंतजार, हैरान और परेशान होने के बाद समझ में आया कि दूल्हा भाग गया है। समस्या बहुत विकट हो गई। लड़की वाले पूरी तरह भड़क गए। पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट करने पर आमदा हो गए। ताऊजी, ताई जी के साथ, मेरे पिताजी, जो शादी में काफी अगुवा बन रहे थे।  सबकी जेल जाने की तैयारी हो गई। अंतिम तौर पर मेरे पिताजी और ताऊ जी ने यह प्रस्ताव रखा। मेरा भतीजा, यहाँ बारात में आया है। वह आर्मी में ऑफिसर है। उसके साथ आपकी बेटी का विवाह कर देते हैं। परिस्थितियों को देखते हुए उन्हें यह प्रस्ताव पसंद आया। मैं बहुत भड़क गया लेकिन अपने पापा सहित ताऊ- ताई जी को जेल भेजने से बचाने के लिए, मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था। मेरी भारतीय सेना के अनुसार, शादी की आयु में अभी सात महीने बाकी थे। इसलिए मैं  शादी के बारे में किसी को अपनी यूनिट में नहीं बता सकता था। मेरी 'मुक्ता' से 15 मिनट की संक्षिप्त मुलाकात कराई गई। हम दोनों की एक दूसरे को स्वीकार करने की मजबूरी थी। इस तरह से, मैं बराती से दूल्हा बन गया। लेकिन बाद में मुझे समझ में आया कि मुक्ता से शादी करके मैंने कोई गलती नहीं की। मेरा वैवाहिक जीवन सुखी था।

            सेना से मोह भंग 

      मेरी पोस्टिंग,अब कश्मीर में हाजी पीर दर्रे के पास हो गई। मैं नई चुनौतियों का सामना करने में लग गया। यहां कार्य करते हुए लगभग दो वर्ष हो गए थे। मेरी, कैप्टन के पद पर पदोन्नति हो गई थी। वहाँ सेना ने पाकिस्तान में, आतंकवादियों के शिविर नष्ट करने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक का प्लान किया। हमरे सैनिकों का ग्रुप बॉर्डर पार करके पाकिस्तान की सरहद में घुस गया आतंकवादी शिविर नष्ट करने के बाद मैं अपनी टीम से भटक गया। मिशन पूरा होने के बाद टीम को पाकिस्तानी सरहद पार करने के बाद वापस आना था। टीम वापस आ गई। मैं रह गया। मुझे पाकिस्तानी आर्मी ने पकड़ लिया। मेरी गिरफ्तारी की सूचना भारत सरकार को नहीं दी गई। मुझे, प्रिजनर आफ वार (पी.ओ. डब्लू.) का स्टेटस पाकिस्तान आर्मी ने नहीं दिया। मेरी खबर लगाने की सारी कोशिशों से नाकाम रहने पर भारतीय सेना ने मुझे भगोड़ा घोषित कर दिया। पाकिस्तान में शुरू के, चार  महीने मुझे जेल में न रखकर दूसरी जगह आई.एस.आई.( पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी ) ने रखा। यातनाओं का दौर, काफी लंबा चला कि कुछ जानकारी उनके हाथ लग जाये। देश के प्रति मेरी निष्ठा के कारण वह सफल नहीं हुए।बाद में, मुझे कोट लखपत जेल में भेज दिया। मुझ पर चोरी छुपे बॉर्डर पार करके तस्करी करने का मुकदमा दर्ज कर दिया।

      भारतीय सेना द्वारा मुझे भगोड़ा घोषित करने के कारण पुलिस थाने में, मेरे मम्मी पापा को बुलाकर मेरे बारे में पूछताछ की गई। वह कुछ नहीं बता पाए तो उनके साथ पुलिस वालों ने मारपीट की। मुक्ता उन दिनों अपने मायके में रहने के लिए गई थी।

     पाक जेल में, मेरे साथ व्यवहार बहुत खराब रहा। वैसे भी मैं भारतीय और ऊपर से हिंदू। खाने में मुझे अक्सर गोमांस  मिलता था। जेल में रहते हुए, मैंने कई पत्र अपने घर भेजने के लिए कुछ हमदर्दी रखने वालों को दिए। लगभग छ: महीने बाद, एक पत्र मेरे मित्र को मिला। उसने मेरे मम्मी पापा को सूचना दी। परिवार के लोगों ने मुझे मरा समझ लिया था।लेकिन मेरे पापा ने कहा, "जब तक की कोई ऐसा सबूत नहीं मिल जाता, मैं अपने बेटे को मारा नहीं मान सकता।" पांँच महीनों की भारत सरकार की जद्दोजहद के बाद, मुझे पाकिस्तान की जेल से मुक्ति मिली। सेना में, प्रज़नर ऑफ़ वार (पी.ओ.डब्लू.) को शक की दृष्टि से देखा जाता हैं। उनको किसी जिम्मेदारी वाले कार्यों में नहीं लगाया जाता। बॉन्ड पीरियड पूरा होने तक, सेना में कार्य करना मेरी मजदूरी थी। भारतीय सेना में नौकरी के साथ, अध्ययन करने के लिए काफी सहूलियत देती है। अत: मैं आर्मी छोड़ने के बाद दूसरी नौकरी करने की तैयारी के लिए अपनी शैक्षिक  योग्यताओं को बढ़ाना शुरू कर दिया। मैंने अंग्रेजी भाषा में  स्नातकोत्तर करने के बाद, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट (आईआईएम)से एग्जीक्यूटिव एमबीए  कर लिया था।

      मेरे पिता सेवामुक्त होकर शहर में बस गए। मैं,अपने मम्मी पापा को साथ रखने लगा या ये कहूँ कि मैं उनके साथ रहता हूं।मुक्ता भी उनका हमेशा विशेष ध्यान रखती थी। इसी बीच हमारी बेटी पिंकी भी जन्म ले चुकी थी।

           बॉन्ड के बीस वर्ष पूरे होने पर, मैंने सेना से त्यागपत्र दे दिया। मैं सेना में, लेफ्टिनेंट कर्नल के पद पर था। पिंकी 10th पास कर चुकी थी। मेरी पत्नी ने पब्लिक स्कूल में अंग्रेजी की अध्यापिका के पद पर कार्य कर रही थी। भारतीय सेना से सेवानिवृत्ति के बाद, मैंने पहली बार नौकरी के लिए बड़ी कंपनी में साक्षात्कार दिया। उन्होंने मेरी योग्यताएं और आर्मी के जबरदस्त, हैरतअंगेज, वीरतापूर्ण अनुभव के कारण मुझे 'वाइस प्रेसिडेंट' के पद पर नियुक्ति दी। मेरा वेतन, पिछली नौकरी की तुलना में दो गुना था। आर्मी छोड़ने के दो महीने बाद, मैंने कंपनी को ज्वाइन कर लिया ।

                        बुलंदियाँ 

           कंपनी का प्रोजेक्ट, एक निर्माणाधीन केमिकल प्लांट था। इस प्रोजेक्ट साइट की शुरुआत, लगभग छ: महीने पहले शुरू हो चुकी थी। आर्मी की बीस साल से ऊपर की नौकरी करने के बाद पब्लिक में कार्य करना मुश्किल होता है। इसलिए, मैंने अपने को पूरी तरह से बदलना शुरू कर दिया। लगभग सात-आठ महीनों में, मैंने सभी के साथ सामंजस्य स्थापित कर लिया। अपने पहले के तीन अभियानों में विद्रोहियों / आतंकवादियों की खोज खबर के साथ स्थानीय नेटवर्क बनाने में, मैं गुप्त गुप्तचर एजेंसियों के साथ तालमेल बैठाने का काम करता था। मेरा यह अनुभव यहां बहुत काम आया। प्रोजेक्ट का एक मैनेजर, प्रोजेक्ट के काम को छोड़कर हमेशा रेट (बालू) तथा ईटों की गाड़ियां उतरने और उनके परचेस के साथ मिलकर ऑर्डर करने में अधिक ध्यान केंद्रित करता था। मैंने उसकी रेकी शुरू करवाई। एक दिन मैंने ईटों और बालू की गाड़ियों को उतरने से रुकवा दिया। अपने सामने, ईटें गिनवाना शुरू किया तो पाया, ईटों की जो संख्या चालान और बिलों पर इंगित है। उससे प्राप्त होने वाली ईंटें, लगभग 15% कम हैँ। क्वालिटी चेक करने पर पता लगा कि 'ए क्लास' ईंटों की जगह भी 'B क्लास' ईटों की सप्लाई हो रही थी। इसी प्रकार  रेत (बालू) की गाड़ियां चेक करने पर पता चला स्क्वायर फीट के हिसाब से मात्रा, वास्तविक मात्र से अधिक की प्राप्ति दिखाई जा रही है।

    सूचना मिली कि टॉर स्टील (सरिया) का इस्तेमाल ड्राइंग के हिसाब से कंस्ट्रक्शन में कम किया जा रहा है और उसे चोरी छुपे प्रोजेक्ट साइट से बाहर ले जाकर बेच दिया जाता है। मैंने सूचना इकट्ठा करना शुरू कर दिया तो पता चला की बहुत बड़ा नेटवर्क काम कर रहा था। इसकी गोपनीय सूचना, मैंने अपने प्रबंध निदेशक को दे दी। उन्होंने जाँच बैठा दी और पता लगा कि टॉर स्टील कम लगाया जा रहा था। और रात में गायब कर दिया जाता था। जाँच पूरी होने पर, पंद्रह को लोग नौकरी से निकाल दिए गये। जांच में, अध्यक्ष (प्रोजेक्ट) के शामिल होने की बात भी सामने आई तो उन्हें भी निकाल दिया गया। प्रबंध निदेशक ने, कंपनी के निदेशकों से सलाह लेने के बाद, मुझे अध्यक्ष (प्रोजेक्ट) के पद पर पदोन्नत कर दिया। अब पूरा प्रोजेक्ट, मेरे कंट्रोल में आ गया।

        कभी-कभी रात में, सुरक्षा की स्थिति जानने के लिए, मैं विजिलेंस किया करता था। मैं दो सुरक्षा सहयोगियों के साथ रात में लगभग दो बजे प्रोजेक्ट में जा रहा था। कॉलोनी से प्रोजेक्ट गेट जाने वाली सड़क पर चार शराबी हुल्लड मचा रहे थे। हमारी सफारी के आगे खड़े हो गए। हम लोग उनको हटाने के लिए गाड़ी से बाहर आए तो चारों हम लोगों के साथ बकवास करने लगे। इसी बीच, मैंने देखा कि उनमें से एक व्यक्ति झोले में हाथ डालकर कुछ निकालने जा रहा है। मेरा तीसरा सेंस काम करने लगा। मैंने झट से उसका हाथ पकड़ लिया और छोला छीन कर देखा तो उसमें दो देसी हथगोले थे। तीन व्यक्तियों को हमने पकड़ लिया और चौथा फरार हो गया। पूँछताछ करने पर पता लगा कि उन्हें हमारे टार स्टील (सरिया) सप्लायर ने लगाया था। हमारी रात के निरीक्षण की सूचना देने वाला, मेरा सिक्योरिटी का स्टाफ था।

      इसी बीच पिंकी ने एम.बी.बी.एस. कर लिया। वह रेडियोलॉजी में एम.एस. करने के लिए इंग्लैंड चली गई। वहीं अपने साथ एम.एस. करने वाले लड़के से प्रेम करने लगी। कोर्स पूरा होने के बाद, मैंने धूमधाम से उनका विवाह कर दिया। दोनों बाद में इंग्लैंड में ही बस गए।

                   मेरी वेदनाएं 

         मेरे पापा मम्मी सड़क मार्ग से, मेरे बड़े भाई के घर जा रहे थे। रास्ते में, उनका रोड एक्सीडेंट हो गया। दोनों गंभीर रूप से घायल हो गए। अस्पताल में भर्ती के दो दिन बाद मेरी मम्मी का देहावसान हो गया। पापा की मृत्यु भी मम्मी की मृत्यु के तीन दिन बाद अस्पताल में ही हो गई। मेरे अभिभावकों ने दुर्घटना बीमा कर रखा था। जिसका क्लेम बीस लाख प्रति व्यक्ति यानी कुल चालीस लाख मिला। इस राशि से, मैंने अनाथ बच्चों का एक आश्रम शुरू किया। जिसको चलाने की जिम्मेदारी मुक्ता ने ली।

    मैं अब साठ वर्ष का हो गया था। मेरा सेवानिवृत्ति का समय आ गया। लेकिन कंपनी ने मुझे सेवानिवृत्ति देने से मना कर दिया। उन्होंने मेरी पदोन्नति करके कंपनी का डायरेक्टर बना दिया। मुझे कंपनी के 'बोर्ड आफ डायरेक्टर्स' में भी जगह दी गई। सभी यूनिटों का प्रबंध अब मुझे दे दिया गया। मेरे सेवाकाल का विस्तार, पांच वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया।

        पांच वर्षों का विस्तार पूरा होने का समय आ गया। मैंने इस बार, अधिक सेवा विस्तार के लिए मना कर दिया था। मैं अपना पूरा समय घर पर देना चाहता था। किंतु एक दिन मुक्ती चक्कर खाकर गिर पड़ी। तुरंत उसे अस्पताल लेकर गए। वहां पर पता लगा कि 'ब्रेन-हेमरेज' हो गया है। उसी रात, उसकी मृत्यु हो गई। जीवन में बहुत अकेलापन और निराशा छा गई। जीने का अर्थ अब नहीं रह गया। कंपनी ने मुझे फिर पांच वर्ष का सेवा विस्तार दिया। जिसके लिए पहले मैंने मना कर दिया था। लेकिन अकेलापन दूर कैसे हो इसलिए मैंने इसको स्वीकार कर लिया। बेटी और उसके पति ने साथ इंग्लैंड में रहने के लिए कहा लेकिन मैंने मना कर दिया। मैं अब अकेला था। ऑफिस में अधिक व्यस्त रहता, तब तक तो ठीक था। लेकिन छुट्टियों के दिन समय मुश्किल से कटता था। मेरी पुरानी मित्र 'किताबें' भी मुझसे दूर हो चली थी। उनको भी मैं अब नहीं पढ़ना चाहता था। मैं अपने जीवन में सफल विद्यार्थी, सेना में सफल नायक, बीच में दुर्भाग्यशाली कैदी, सफल पति एवं सफल पिता था। शानदार कैरियर का निर्माता रहा। लेकिन अब लगता था कि मैं थोड़ा-थोड़ा हारने लग गया। 

            सत्तर वर्ष की आयु आने पर, इस बार सेवा से मुक्त हो गया। मेरा काम, अब केवल अनाथ आश्रम पर ध्यान केंद्रित करने का था। वहां दिन भर रहता तो लगता कि मेरे इतने बच्चे हैं। फिर, मैं क्यों अपने को अकेला समझता हूं। मैंने नींद आने की दवाइयों का सेवन भी बंद कर दिया। अपने अनाथ बच्चों को दादी बाबा मिले, उसके लिए एक वृद्ध आश्रम खोल लिया। मुझे, अपने बचे हुए शेष जीवन के लिए दिशा मिल गई।

                                   (समाप्त)

सतीश शुक्ला

 

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