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भ्रष्टाचार

विषय :  *भ्रष्टाचार बना पारूप*


शीर्षक : *जियो और जीने दो*

 विधा   : कविता 


मेरे शहर में एक लंबी बेहेस चलती आ रही है,

बहस जाने सदियों से चली कहीं रुक नहीं पा रही।


मेरा नकद जैसा स्वभाव, और ये शहर आमदनी,

नजर कैद यहां लोग, रिश्वतों पे चलती जिंदगानी।


ये रास्ता मैंने चुना नहीं , ये अपने आप हुआ चुनिंदा ,

ये बात तो तेह है , रिश्वत लेने में नहीं कोई शर्मिंदा।

 

इस भ्रष्टाचारका भयानक रूप देख चुके है , भोग चुके है ,

बिना रिश्वत नहीं काम यहा होता, थोड़ी रिश्वत देके सपने खरीद लेते है ।


तुम बरसों बरस इस भ्रष्टाचार को मिटाने की कोशिश करलो,

ये नसों में पनपता हैं , मेज़ के नीचे , मिठाई के डब्बो में चलता फिरता है,

 ये हादसों का शहर है जियो और जीने दो , काग़ज़ी  चलन चलन का रुतबा आंखें बंद और  खेल देख लो ।


~ *बिजल जगड*

   मुंबई , घाटकोपर

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