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तू आखिर क्यों लड़ता है?

तू आखिर क्यों लड़ता है?


संघर्ष को पूजता है,

कठिनाइयों से जूझता है,

मजबूरियों में खीझता है,

तू आखिर क्यों लड़ता है?


परिस्थतियों की गुलामी में,

मौका परस्तों की सलामी में,

आडम्बरों की सूनामी में,

तू आखिर क्यों लड़ता है?


निष्काम कर्म तो तेरा मार्ग है,

बोधिसत्व तो तेरा तत्व है

प्रेम तो तेरा स्वभाव है फिर,

तू आखिर क्यों लड़ता है?


बदनामी के डर से,

बेवफाई के आगोश से,

कर्तव्यों के बोझ से,

तू आखिर क्यों लड़ता है?


जानता है कि युद्ध में केवल हार है,

मानता है की द्वन्द बेकार है,

जीवन महाभारत का सार है तो,

तू आखिर क्यों लड़ता है?


कभी खुद से तो कभी खुद ही से,

अपनो से तो कभी अपनेपन से,

ईश्वर से तो कभी भक्ति से,

तू आखिर क्यों लड़ता है?


संघर्ष को जीना मानकर,

सीने को मानस मानकर,

रिश्तों को खतरा मानकर,

तू आखिर क्यों लड़ता है?


कभी खेल के मैदान में,

तो कभी कर्मक्षेत्र के मुकाम में,

अक्सर अहं के जाल में,

तू आखिर क्यों लड़ता है?


सरस्वती का वरदान होकर,

लक्ष्मी को फिर भी मानकर,

ब्रह्मज्ञान से तो मेहमान है जानकर,

तू आखिर क्यों लड़ता है?


शिक्षा को परीक्षा बनाकर,

विद्या को औज़ार बनाकर,

वरीयता को त्योहार बनाकर,

तू आखिर क्यों लड़ता है?


खेल को जंग समझकर,

वासना को अंग समझकर,

लहू को रंग समझकर,

तू आखिर क्यों लड़ता है?


जन्म लेना एक जीती हुई लड़ाई थी,

बड़े होना एक खुशनुमा खेल था,

उम्र के इस परिपक्व मोड़ पर आकर,

तू आखिर क्यों लड़ता है?


जिंदगी को जुआ बनाकर,

इमारत को ख़ुदा बनाकर,

फनकार को मसीहा बनाकर,

तू आखिर क्यों लड़ता है?


विचारों को आदर्शों का पैगाम बनाकर,

स्वच्छंद प्रकृति को मौज का सामान बनाकर,

ख़ुशनुमा जीवन को युद्ध का मैदान बनाकर,

तू आखिर क्यों लड़ता है?


अहिँसा के पुजारियों से,

समाज के जुआरियों से,

धर्मांधता की बीमारीयों से,

तू आखिर क्यों लड़ता है?


न तो तेरा ये शौक़ है,

न तो तेरा ये स्वभाव है,

अनकही बातों में आकर,

तू आखिर क्यों लड़ता है?


वो कौन था जिसने उत्साहित किया,

वो क्या था जिसने प्रोत्साहित किया,

दर्शनों के मरुस्थल पर खोकर,

तू आखिर क्यों लड़ता है?


एक बार,

विचारों के शस्त्रों को,

भावनाओं के अस्त्रों को,

हार जीत के भवरों को,

त्यागकर,

जीकर तो देख,

शायद लड़ाई की जरूरत ही न पड़े।


डॉ समीर गोलवेलकर


Sameer@optionsguidance.com

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