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सांध्य बेला की स्वतंत्र राह

सांध्य बेला की स्वतंत्र राह


बडे़ बुजुर्ग कहते हैं, शादी एक जुआं हैं, जीत गये तो लाभ ही लाभ और हार गये तो उम्र भर का पश्याताप। फिर वह प्रेम विवाह हो या पारंपरिक तरीके से निश्चित किये हुए विवाह हो। लेकिन आगे क्या होगा? इसका अंदाज सौ प्रतिशत सही कोई नहीं लगा सकता।
प्रेम में सौ-सौ कसमें खाने वाले, भविष्य में एक-दूसरे के दुश्मन सा जीवन बिताते है जबकि शादी के पहले एक-दूसरे से कभी न मिलने वालों की गृहस्थी की गाड़ी सुखमय चलते हुए दिखाई देती है।
इस रिश्ते में जितनी उथल-पुथल, जितने उतार-चढ़ाव है, उतना अन्य किसी रिश्ते में नहीं होती। रिश्ता कोई भी हो, दोनो पक्षों में मूलभूत समझदारी होना आवश्यक है, संयम और प्रेम होना आवश्यक है। लेकिन वर्तमान में कुछ गलत हो रहा है या लोग अधिक स्वतंत्रता से व्यक्त होने लगे है। कारण जो भी हो सच्चाई यह है कि समाज में हर रिश्ता दांव पर लगा हुआ दिखाई देता है। वैवाहिक जीवन भी अपवाद नहीं है। तरूण पीढ़ी के लिए तलाक लेना एक साधारण सी घटना हो गई है। लेकिन ज्येष्ठ नागरिक भी तलाक की प्रक्रिया में कदम बढ़ा रहे है।
सविता पहले माँ-बाप के लिये, फिर बच्चे छोटे थे इसलिये, समाज का डर, नाते-रिश्तों का डर ऐसे असंख्य कारणों से सविता संशयित और बाहर दूसरी औरत के साथ रंगरेलिया करने वाले पति को झेलती रहीं, उसकी आततायी नजरकैद सहती रही। लेकिन उम्र के साठ के पड़ाव पर उसके संयम ने, सहनशक्ति ने जवाब दे दिया और उसने तलाक के लिये न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। पैतीस वर्ष की बसी-बसाई गृहस्थी को छोड़ने का निर्णय आसान नहीं था। परिवारवालों के सारे प्रयत्न साम, दाम, दंड, भेद सविता के कठोर निश्चय के सामने हार गये। समुपदेशन के सामने भी वह टस से मस नहीं हुई।
सविता का अपना पक्ष मजबूत था। मेरे पत्नित्व के सारे कर्तव्य पूरे हो गये है। दोनों बच्चे अपने घरों में सुविधासंपन्न और सुखी है। सास-ससुर दोनों की सेवा उनकी मृत्यु तक करती रहीं। अब वह नहीं रहे। यह थोडे वर्षो का जीवन मुझे मिला है उसे मैं उन्मुक्त, मेरी तरह से जीना चाहती हूँ। पति नाम के इस व्यक्ति के दबाव में नहीं रहना चाहती जिसने मेरे स्त्रीत्व का, पत्नित्व का सदैव अपमान किया है, मुझे हेय समझा है। सविता की तलाक की अर्जी से समाज के सामने नये प्रश्न खडे़ हुए है। अभी तक तरूण पीढ़ी में तलाक की बढ़ती संख्या के बारे में चिंता व्यक्त की जाती थी, चर्चा होती थी। निश्चित ही समस्या गंभीर है, लेकिन उसी समस्या का दूसरा पक्ष भी ठोस है। इस बात का ध्यान सविता की तलाक की मांग से करवा दिया।
पिछली पीढ़ी की भी ऐसी कोई समस्या हो सकती है, यह विचार दूर तक नहीं थे। एक-दो मामले हुए भी लेकिन कोई निष्कर्ष निकाला जाये ऐसी परिस्थिति नहीं थी या उस पर गंभीरता से सोचा जाये, ऐसा नहीं लगा। लेकिन आज अकेले नागपुर शहर के पारिवारिक न्यायालय में तलाक के लिये दी हुई सौ अर्जियों में से दस ज्येष्ठ नागरिक की है। यह आॅकडा मात्र एक शहर का है और महिलाओं का है। कारण निम्नलिखित है -
विवाहित पत्नि घर में होते हुए भी अन्य स्त्री से संबंध रखना, पत्नि को दुय्यम दर्जे का समझना, उसका अपमान करना, उसे पैर पोंछने वाली (डोअरमेट) समझना, सतत शंका की नजरों से देखना।
यह कारण सुननेवाले को साधारण लग सकते है, लेकिन वर्षानुवर्ष इस मानसिक छल को, स्त्रीत्व की सतत प्रतारणा को सहन करने वाली महिला ही जान सकती है कि पैतीस वर्ष अपना चेहरा छुपाकर सुखी गृहणी का मुखौटा ओढ़े रहना कितना कठीन काम है?
कई बार तो बच्चों सहित पूरा परिवार पति के साथ होता है। बच्चें भी माँ का मजाक उड़ाते है, ऊपर से परिवार वाले, रिश्तेदार सब यह कहकर दूर हो जाते है कि औरत को तो सहना ही पड़ता है।
फिर एक दिन ऐसा आता है, जब उसकी सहनशक्ति का बांध टूट जाता है। वह भी ऐसी स्थिति में जब उसने अपनी सारी जिम्मेदारियां अच्छे से निभाई है। पत्नी, माँ, दादी, नानी वाले हर कर्तव्य को पूरा किया है। अब यदि उसे लगता है कि बाकी का जीवन मैं अपनी मनमर्जी से जी लूं तो वह गलत तो नहीं है!
पति-पत्नी हो या अन्य किसी भी रिश्ते का टूटना, निश्चित क्लेश कारक होता है क्योंकि रिश्तों में बहुत बड़े भावतिक, शारीरिक, मानसिक जुड़ाव होते है। उन रिश्तों को तोड़ने के लिये कई वर्षो से मानसिक तैयारी करनी पड़ती है। दूसरों की अपेक्षा अपने मन को समझाना पड़ता है। स्वयं को मानसिक और भावनिक रूप से तैयार करना पड़ता है और जब यह तैयारी हो जाये तो अपने निर्णय स्वयं पर, रिश्तों पर जो परिणाम होंगे उसे मैं सहन कर सकुंगी का विश्वास स्वयं में आ जाये तब स्त्री इतना बड़ा कदम उठाती है।
पैतीस वर्षो का दीर्घकाल उसने अनचाहे पति के साथ बिताया है, गृहस्थी बसाई है, बच्चों के साथ भरे पूरे घर में रहने की आदत हो जाती है यह बस छोड़ कर स्वतंत्र रह पाऊंगी या नहीं? इन प्रश्नों के उत्तर उसे स्वयं को ही देने होते है।
अब पूरी मानसिक तैयारी के बाद कोई महिला तलाक के निर्णय तक पहुंचती हैं तो निश्चित ही उसने बहुत कुछ सहा है, सहने की हद से गुजरी है। इसलिये सांध्य बेला की राह पर अकेले चलने के इस निर्णय को व्यक्तिगत प्रश्न कहकर छोड़ देने के बजाय सहानुभूति और गंभीरता से विचार करना चाहिये।


डाॅ. संध्या भराडे़
(सुर-संध्या)
294, अनूप नगर
इन्दौर म.प्र.
9300330133

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