आज कुछ मै ढुंड रहा हु
अस्तित्व अपना टटोल रहां हु
आज कुछ मैं ढुंड रहां हुं .............
सुनता था मै कभी दुरसे
थके तन और ग्लानीत मन से
स्वर संगित वो मंदिरोंका
एक भाग था वो जिवनका
अधुनिकता के कोलाहल में
खो गया वो नाद काल में
उस आवाज को सुननेको मै
चौखट प्रभुकीं लांघ रहा हूं
आज कुछ मैं ढुंड रहां हुं .............
फुरसत के पल जो थे अपनें
यारोंके संग संजोये सपनें
पढे़ किताबोंके कुछ पन्ने
मैदानोंपर बालक नन्हे
सुखदुख और रिश्तोंकी गलियां
खुशबु बिखराती वो कलियां
लेने खुशबु उस मिट्टीकीं
मनको मेरें भिगा रहां हुं
आज कुछ मैं ढुंड रहां हुं .............
रोज जमी अपनोंकी महफिल
आकाशके तरोंकी वो झिलमिल
खिलतें रिश्ते नोकझोंक में
मैल नहीं था हंसते मन में
पनघट की वो खिंचातानी
रोज नयी थी एक सैतानी
आसपास की भिडभाडमे
अपनोंको मै खोज़ रहां हुं
आज कुछ मैं ढुंड रहां हुं .............
छमछम भागी नन्हीसी गुडीयां
रोज सबेरे खनके वो चुडी़यां
छाव बनाता ममता का आंचल
तिरछे नयनोंका वो काजल
आंगनमें वो पंछी गाते
नया राग एक रोज सुनाते
यांत्रिकता के घहरघहर में
वो एक संगित मै खोज रहां हुं
आज कुछ मैं ढुंड रहां हुं .............
नयी आंस में क्या पाया मैने
भागदौड में क्या खोया मैने
सबकुछ मुझसे छिन गया है
वो एक अर्सा बित गया है
नुक्कड नुक्कड राहें गलियां
ढुंडणे परभी मिलीं न खुशियां
लाख कोशिशें करनें पर भी
खाली हाथ मै भाग रहां हुं
आज कुछ मैं ढुंड रहां हुं .............
आज कुछ मैं ढुंड रहां हुं .............
©® दिपक सुर्यकांत जोशी
चिखली, जि. बुलढाणा
9011044693