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प्लेग

प्लेग ( अल्बैर कामू)1957 में

नोबेल पुरुस्कार से सम्मानित।


ओरान,  एक बिना रंगों का शहर ना पेड़ पौधे ना पंछियों की चहक, बसंत के आगमन के साथ ही जब यह शहर प्लेग की चपेट में आया तो फिजाओं में एक दर्द का रंग बिखरता गया।

हां ,दर्द का रंग जब मानव जाति पर किसी महामारी ,युद्ध , प्रलय का आक्रमण होता है तो अपने आप एक ऐसे दर्द से मुलाकात हो जाती है जो आपको उन सबसे भी जोड़ देता है, जिनसे कभी कोई रिश्ता ही ना था ।

इस कहानी के किरदार डॉक्टर रियो, रेंब्रत, तारो और पादरी पैनेलो, अलग अलग विचार और अलग अलग परिस्थिति होते हुए भी एक ही सफर में थे, प्लेग के आगे घुटने नहीं टेकना चाहते थे, और प्लेग से जूझ रहे लोगों के लिए फरिश्ता बने ।

डॉक्टर रियो,से पादरी पैनलों ने एक संवाद में कहा भी, "हम सब मिलकर ऐसी चीज के लिए काम कर रहे हैं जिसने हमें एकता के सूत्र में बांध दिया है जो कुफ्र और प्रार्थना से परे है और यही असली चीज है"।

पर ना जाने क्यों यह किताब पढ़ते पढ़ते मैं आज से जुड़ती गई , कई जगह यही लगा कि यह परिस्थिति तो वर्तमान की भी है। यह दर्द यह तकलीफ, डॉक्टर रियो जैसे किरदार भी है तो कोतार्ड जैसे भी जिसने सिर्फ अपना फायदा देख कालाबाजारी की।

ऐसा ही एक किस्सा जब रेस्त्रां पर एक तख्ती टांग दी गई थी यह लिखकर कि "बढ़िया शराब की बोतल प्लेग के छूत से बचने का सबसे अच्छा तरीका है" लोगों की यह धारणा और भी पुष्ट हो गई थी कि शराब छूत की बीमारी से आदमी को बचा सकती है ।

यही तो लॉकडाउन में हुआ कि लोगों ने 500 की बोतल 2000 तक में भी खरीदी और बहुत से लोगों ने इसकी कालाबाजारी की और जब लॉक डाउन में ढील दी गई लंबी लाइन शराब की दुकानों पर देखी गई।

कुछ लोग जहां अपना परिवार और खुशियां छोड़ इस महामारी से निपटने में लगे थे वहीं कई लोग अपने फायदे में।

उन दिनों और इन दिनों लोगों के पास सांत्वना का एक ही साधन रहा "जो भी हो जाए कइयों की हालत तो मुझसे भी गई गुजरी है"

अपने आप को दिलासा इसी बात से देते रहे हैं लोग।

एक अद्भुत शैली से भाव को व्यक्त करते हुए, लेखक ने इस उपन्यास के जरिए एक राह दिखा दी हमदर्दी ,की चाहे कितनी बड़ी आपदा क्यों ना हो हम महान संत कभी नहीं बन सकते, पर दूसरों के प्रति हमदर्दी रखकर सुकून तो बटोर ही सकते हैं अपने हिस्से में।

चाहे प्लेग हो या कोरोना पूरी तरह से यह कीटाणु मरने वाले नहीं किसी न किसी रूप में फिर से आक्रमण कर सकते हैं ,

पर मानव के अंदर जन्मे कुत्सित विचार के कीटाणु भी मर तो नहीं हो सकते पर क्यों न हम इस होली पर हमदर्दी का बीज बोले, तो इंसानियत के रंग में रंग जाये, ऐसा रंग जो फिर कभी न छूटे,

दर्द में भी सुकून देती यह किताब।

और अंत में दो लाइन उस हर शख्स के लिए जिन्होंने महामारी से लड़ते हुए अपने वजूद को ही दांव पर लगा दिया।

दूसरों का दर्द कम करके कुछ ये कर गया वो,

दिल दर्द से भर गया , ज़मीर अमर कर गया वो।

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