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धोरों से आती आवाज़ें

एक मुलाकात वरिष्ठ साहित्यकार नंद भारद्वाज के साथ.......


धोरों से आती आवाज़ें


*घर की खुले अहाते में बारिश से भीगी रात को देते हुए अपना मनचाहा आकार हम अक्सर बनाया करते थे बचपन में उस घर के भीतर निरापद अपना घर*


1948 में बाड़मेर के गांव कवास (माडपुरा) में जन्में  वरिष्ठ साहित्यकार नंद भारद्वाज की कहानी यहीं से शुरु होती हैं। लेखन का बीज बाल मन में इन्हीं धोरों के बीच ही कहीं पनपा होगा तभी तो उनकी लगभग हर रचना में गांव की झलक मिल ही जाती हैं। उनकी मित्र मंडली में वहां की रेत और पशु मवेशी शामिल रहें हैं हमेशा।रेत को मुट्ठी में भर कर धीरे धीरे अपनी पहुंच से मुक्त करते हुऐ भी शायद कोइ कविता जन्म ले लेती होगी उनके मन में। वो बताते हैं कि उनके अहाते में एक ऊंटनी रहा करती थी उनके पास, जिसके साथ खेलते खेलते वो बड़े होने लगे। कई बार जब वो आपे से बाहर हो जाती तो सिर्फ़ वो ही उसे शान्त कर पाते थे, कोन जाने उसके कानों में भी क्या कोई कविता गुनगुनाते हो।

इन धोरों और मवेशियों से बातें करते ये बालक एक दिन गांव के पास कस्बे में अपनी मित्र मंडली के साथ स्कूल जाना भी शुरू कर दिया । पिताजी ने भी इसी उम्मीद पर स्कूल भेजना शुरू किया कि आने वाले समय पर उनका बेटा उनके साथ पंडिताई में मदद करेगा, पंचाग बाचेगा, सब सीखा  भी उन्होंने महाभारत, रामायण में छोटी सी उम्र से ही पूरा ज्ञान प्राप्त कर लिया उस बालक ने, साथ में ही मीरा ,कबीर तुलसी के दोहे भी गाने शुरू किए और देखते ही देखते कब आठवीं पास कर ली अच्छे नंबरों से पता ही नहीं चला। स्कूल में उनके एक शिक्षक लज्जा राम जी के सानिध्य में शिक्षा के और करीब आते गए पर अब आगे की पढ़ाई का रास्ता बंद हो चुका था क्योंकि स्कूल सिर्फ आठवीं तक ही था।


पिताजी गांव से बाहर भेजने को तैयार ना थे, पर उन्होंने  रो-रोकर मां का हृदय पिघला ही दिया और मां ने अपनी जमा पूंजी हाथ में रख दी और कहां की जा कर ले अपना सपना पूरा, पर आगे का जिम्मा तुझे ही उठाना है नहीं कुछ कर पाए तो घर वापसी के लिए दरवाजे खुले हैं।

"सुबह की पहली किरण से

उजास के अंतिम छोर तक"

तलाश मन में लिये वो बालक

उस छोटी सी उम्र में ही शायद अपना वजूद बनाने की सोच ली मन में।

तभी तो बाड़मेर में आकर अपने को तराशना शुरू किया शिक्षा के जरिए ।आगे यह लड़ाई जारी रहे इसलिए एक प्रिंटिंग प्रेस में सहायक का काम करने लगे नंबरिंग-किताबों पर बाइंडिंग का काम करते हुए बाड़मेर शहर के इस हाई स्कूल में संस्कृत और हिंदी पढ़ाने वाले अच्छे शिक्षक मिल गए। जिन्होंने उनके हृदय में परंपरा और विरासत के प्रति और अधिक लगाव पैदा कर दिया ।इस बीच उन्हें एक मित्र की सहायता से बाड़मेर के ऑफीसर्स क्लब में पीकी का पार्ट टाइम काम मिल गया जिसे सिर्फ शाम को 3 से 4 घंटे ही देने होते थे और फिर वही पर उनकी रहने की सुविधा भी हो गई ।उन्होंने सुबह कॉलोनी के घरों में अखबार बांटने का काम भी अपने जिम्मे ले लिया नवी दसवीं तक आते-आते कॉलोनी के बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाने लगे और यह पढ़ाई का सफर यूं ही जारी रहा बारहवीं कक्षा तक। संयोग से उसी स्कूल में कॉलेज की भी नीव पड़ गई जिससे उनका सफर जारी रहा। और धोरा में रह रही मां उनकी याद में बनी रही हर पल।


"*उसकी हर इच्छा में खोजती अपनी खुशी वह दूर तक बनी रहना चाहती है उसी की दुनिया में अंतरलीन कोई और विकल्प रहता ही नहीं है शेष उसकी आंखों में*"


स्कूल कॉलेज की पढ़ाई के दौरान संगीत में भी अच्छी रुचि रही और हर कार्यक्रम में उनका एक गायन जरूर रखा जाता था और इसी बीच उन्होंने अपने बनाएं गीत भी गाए, क्लब में रहते हुए एक सुविधा उन्हे मिली कि तमाम अखबार और पत्रिकाएं मुफ्त में पढ़ने को मिल जाया करती थी और उन्हीं दिनों में हिंद पॉकेट बुक्स ने पाठकों को अच्छा और सस्ता साहित्य उपलब्ध करवाने के लिए एक घरेलू लाइब्रेरी योजना शुरू की थी जिसमें एक रुपए में एक अपनी पसंद की किताब आप डाक से मंगवा सकते थे और उन्होंने उसी माध्यम से रविंद्र नाथ टैगोर ,शरद चंद्र ,बंकिम चंद्र, अमृता प्रीतम ,आचार्य चतुरसेन ,गुरुदत्त, गुलशन नंदा आदि कई लेखकों की किताबें मंगवाई और अपनी एक निजी लाइब्रेरी तैयार कर ली और साथ ही जयपुर जाकर आगे की पढाई करने का मन भी बना लिया।

पर इस सबके बीच उनके घरवालों को यही लगता रहा कि यह लड़का हमारी एक नहीं सुनेगा इसलिए इसे जिम्मेदारी के बंधन से बांध देना चाहिए और 12वीं कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते उनकी शादी कर दी गई। पर जीवनसंगिनी को पता था की उनके पति को अभी बहुत कुछ

करना है और उन्होंने विरह झेल कर इस यात्रा को आसान कर दिया। और एक दूसरे की याद को झेलते हुए सफर यूं ही आगे बढ़ता रहा ।

"आज फिर आई तुम्हारी याद तुम फिर याद में आई

आकर समा गई चौतारा समूचे ताल में, रात भर होती रही बारिश रह रह कर हुमकता रहा आसमान तुम्हारे होने का एहसास कहीं आस पास

भीगती रही देहरी आंगन द्वार

मन तिरता - डूबता रह

तुम्हारी याद में"


जयपुर से एम ए की डिग्री हासिल करने वाले नंद भारद्वाज यहीं तक नहीं रूके, इनके परदादा के बड़े भाई लच्छीराम जी ने महाभारत के प्रमुख चरित्र करण को लेकर एक काव्य की रचना कर रखी थी जो उनकी पिता की कॉपी में लिखा हुआ था और उसी पर इन्होंने एम ए के दौरान पाठ संपादन करते हुए अपना लघु शोध लिखा। हिंदी में उस समय आठ पेपर हुआ करते थे जिनमें से एक पेपर विद्यार्थी की इच्छा का हुआ करता था और उन्होंने भाषा के प्रति अपने लगाव के चलते राजस्थानी साहित्य का पेपर पढ़ना पसंद किया ।जिसके चलते इन्होंने पृथ्वीराज रासो, ढोला मारु रा दोहा ,मीरा पदावली खेड़िया ,जग्गा वचनी का वीर सतसई अधिक पाठ्यक्रम में पड़ी। उस समय भी हिंदी विभाग में डॉक्टर हीरालाल माहेश्वरी और शंभू सिंह मनोहर जैसे राजस्थानी विद्वान पढ़ाने वाले गुरु मिले,बाद में जोधपुर विश्वविद्यालय में डॉ नामवर सिंह के निर्देशन में अपनी पीएचडी का काम जारी रखा और  अब तक इनकी कई कविताएं छपने लगी, दैनिक समाचार पत्र जलतेदीप में भी इन्होंने उप संपादक के रूप में कार्य किया।


"इससे पहले कि अंधेरा आकर ढाप ले फलक तक फैले दीठ का विस्तार

मुझे पानी और मिट्टी के बीच बीज की तरह बने रहना है इसी जीवन की कोख में"

अपनी इन्ही पंक्तियों को जीवन में उतारते आगे बड़ते रहे नंद भारद्वाज ने, हरावल मासिक पत्रिका का संपादन कार्य भार संभाला, कई पत्र पत्रिकाओं में कविताएं और अनुवाद प्रकाशित हुए और 1974 में पहला कविता संग्रह 'अंधार- पंख 'सामने आया ।

1975 में आकाशवाणी में नौकरी लग गई।

और दूरदर्शन से जुड़ने के बाद उस समय के कई कलाकारों और लेखकों का इंटरव्यू किए। "सवांद निरंतर" में , उसी से जुड़े कुछ खास संवाद सुरक्षित हैं। "सांम्ही खुलतो मारग" के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।

कई रचनात्मक लेख और कार्यों को सम्पादित करते हुए अपना सफ़र जारी रखा। हमेशा ऊर्जावान रहने वाले नंद भारद्वाज को आज भी यही लगता हैं कि अभी तो बहुत कुछ करना है।साहित्य के क्षेत्र में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाने के बाद भी इनका सफ़र निरंतर जारी है, राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलाने के लिए प्रयासरत नंद भारद्वाज के बारे में ये लेख लिखते हुए मैंने जीन कविताओं की पंक्तियां को चुना है वो "आदिम बस्तियों के बीच" कविता संग्रह से ली है।

"कुछ देर और इसी तरह

मुस्कराते रहना है मुझे

इसी सयानी दुनिया में निस्संग

सहज ही बने रहना है

सफर में, बाकी बरस कुछ और"🌺🌺


कुछ प्रमुख कृतियां

अंधार - पंख

दौर अर दायरो

बदलती सरगम

झील पर हावी रात

आपसदारी

आवाज़ो के आस - पास

आगे खुलता रास्ता (मूल राजस्थानी उपन्यास का उन्ही के द्वारा किया अनुवाद)

आदिम बस्तियों के बीच

संवाद निरंतर

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