रचना के विवरण हेतु पुनः पीछे जाएँ रिपोर्ट टिप्पणी/समीक्षा

अंततः

अंततः...

***********

घोर निराशा के सारे बादल

आज छट गए हैं..

देर से ही सही!

हुआ है एक नया सूर्योदय

जहाँ आशा और विश्वास है..


अब तब सुलग रही थी आग

हर स्त्री के हृदय में

अंगारों की आँच में झुलस रही थी

उसकी मुक्ति और स्वतंत्रता 


गुस्सा उफन रहा था,डर था

कि स्त्री मुक्ति की झूठी वजनदार बातें 

कहीं दबा न दे दबा न दे निर्भया का दर्द


चकाचौंध की इस दुनिया में

मेकअप से पुते हुए चेहरों के बीच

कहीं खो न जाए उसका जख़्मी चेहरा


महिला दिन के सम्मानों और 

हार फूल पुरस्कारों के बोझ तले

दब न जाए उसकी न्याय की पुकार..


कानून के तथाकथित रखवाले

घटिया दाँवपेंच चलकर 

कहीं दबा न दे उसकी आत्मा की आवाज़


लेकिन आज...

सूरज की पहली किरण ने

ने चीर दी अंधेरों की चादर

इस चेतावनी के साथ कि

स्त्री अस्मिता से खेलने वालों

अब तुम्हारी खैर नही

विश्वास करो उसके घर में

देर सही , अंधेर नही! 


©ऋचा दीपक कर्पे

टिप्पणी/समीक्षा


आपकी रेटिंग

blank-star-rating

लेफ़्ट मेन्यु