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आम का पेड़

लघुकथा

आम का पेड

घर के अहाते में ही आम का एक पेड लगाया है। वह अब बारह तेरह साल का अच्छा हट्टा कट्टा ऊँचा पूरा पेड है। उसके पत्ते ही बारह से पंद्रह इंच लंबे। बसंत में हरियाता है तो अच्छे अच्छों की आँखें फैल जाती है।‌ एक पडोसी को मलाल इस बात का रहा कि वह इससे उम्मीद लगाए बैठा। कि पेड अब न तब फल तो देगा ही। एक साल तो पेड पर लटालूम बौर आया भी। बौर छोटी छोटी अमियाओं में बदले। पेड ने कहा वह फल दे सकता है। उस साल पेड पर फलों को तोडने वाली लग्गियाँ ज्यादा दिखाई दी। इनमें वह उम्मीद लगाया पडोसी भी था यह दूसरे ने बताया।
पर अगले साल पेड पर फल नहीं लगे। अगले ही बल्कि किसी साल फल नहीं लगे। जो दे सकता है उससे उम्मीद तो रहती है। वह रोज आकर कहता रहा। ये पेड तो फल देता नहीं। काट क्यों नहीं देते? आखिर कल घर के भीतर इसकी जडे़ं फैल जाएंगी। मकान को नुकसान पहुँचेगा। देखो इसकी शाखाएं भी सडक तक चली जा रही है।
और मैं बार बार टालता रहा। हर पूनो अमावस को और वार त्योहार बिलानागा वह आता रहा, वंदनवार सजाने के लिये आम के पत्ते लेने। हवन के लिये लकडी लेने। एक दिन वह फिर पत्ते लेने आ पहुँचा। कुछ पत्ते ले जाऊँ।
बेटों को ही भेज देते मैंने कहा।
अपनी सुनते कहाँ है भाई। कुछ भी हो। अपने से अपनी निकम्मी औलाद छोडते नहीं बनती है। फिर तो यह पेड कुछ न देकर भी बहुत कुछ दे रहा है। मैंने नहीं अब उसने ही कहा। मत कटवाना इसे।

सुधीर देशपांडे

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