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जलेबी

जिसने कभी भी जलेबी ना खाई हो तो धिक्कार है उसके जीवन को ! खैर ऐसे धिक्कारे जाने योग्य जीव आपको हमारे हिंदुस्तान मे तो ढूँढे से भी नही मिलेंगे ! और हिंदुस्तान ही क्यों पूरे पाकिस्तान ,बाँगलादेश और मध्यपूर्व मे ,यहाँ तक की स्पेन मे भी नही मिल सकेंगे आपको ! क्योंकि जलेबी वो चीज़ है जो आधी सी दुनिया में भिखारी से लेकर राजा तक के दस्तरख़ान की शोभा रहती आयी है !
उत्तर पश्चिमी भारत और पाकिस्तान में जहां इसे जलेबी कहा जाता है वहीं महाराष्ट्र में इसे जिलबी कहा जाता है और बंगाल में इसका उच्चारण जिलपी करते हैं। जाहिर है बांग्लादेश में भी यही नाम चलता होगा !
अब रूस और अंटार्कटिका वालो की जानकारी के लिये तो बताना ही होगा कि यह गोल गोल ,उलझी सी चीज़ जो मैदे के अलावा पनीर ,मावा ,उड़द और मूँग दाल से भी बनाई जाती है और जब यह शक्कर या गुड के घोल मे तैराकी करने के बाद जीभ पर पहुँचती है तो आत्मा तक को मीठी करने की क़ाबिलियत रखती है !
जलेबी राजाओं से होकर जन जन तक और देश विदेशों तक जा पहुँची है अब तो ! सुना है अफ़ग़ानिस्तान वाले तो मछली के साथ भी इसका भोग लगा जाते है पर आप इसे दूध या दही के साथ खाइये ये जलेबी के स्वाभाविक साथी हैं ! इंदौरी इसे पोहे के साथ खाते है और मै इस मामले मे उनका समर्थन करता हूँ !
बनारस की जलेबियाँ तो मशहूर है हीं ! ताऊ की जलेबी मेरठ के साथ इंदौर के सराफे मे मिलने वाली जलेबियाँ भी कुछ कम नही ! और हमारे नरसिहपुर की मावे की जलेबियाँ तो दूर दूर तक जानी मानी है !
कुछ लोगों का मानना है कि जलेबी मूल रूप से अरबी शब्द है और इस मिठाई का असली नाम है जलाबिया ,कुछ भाई लोगों का ख़याल है कि यह अरब से नादिरशाह के साथ पाँच सौ बरस पहले भारत आयी !
एंग्लो इंडियन शब्दों के ऐतिहासिक शब्दकोष 'होबसन जोबसन' के अनुसार जलेबी शब्द अरबी के जुलाबिया या फारसी के जलिबिया से बना है। ईरान में इसे जुलाबिया कहते हैं। वहां दसवीं शताब्दी की पाक कला से जुड़ी कई किताबों में जुलाबिया का जिक्र है। कहा जाता है कि मध्यपूर्व से ही जलेबी भारत में पहुंची ! पर शरदचंद्र पेंढारकर इसे विशुद्ध भारतीय मानते है ! उन्होने अपनी किताब बनजारे बहुरूपिये शब्द में जलेबी का प्राचीन भारतीय नाम कुंडलिका बताया है ! वे रघुनाथकृत ‘भोज कुतूहल’ नामक ग्रंथ का हवाला भी देते हैं जिसमें इस व्यंजन के बनाने की विधि का उल्लेख है। इसे ‘जल-वल्लिका भी कहा गया है ! रस भरी होने की वजह से इसे यह नाम मिला और फिर इसका नाम हुआ जलेबी ,फारसी और अरबी में इसकी शक्ल बदल कर हो गई जलाबिया।
जिनासुरा ने चौदह सौ पचास में जैन धर्म के संबंध में एक पुस्तक लिखी थी जिसमें जलेबी का जिक्र है। सन सौलह सो में लिखी गयी संस्कृत भाषा की कृति 'गुण्यगुणाबोधिनी' में भी जलेबी के बारे में लिखा गया है। सत्रहवीं शताब्दी में रघुनाथ ने 'भोजन कौतुहल' नामक पाक कला से संबंधित पुस्तक लिखी थी ,इसमें भी जलेबी का ज़िक्र है !
कही पढा था मैने कि मुबंई के एक शैफ ने अठारह क़िलों की एक जलेबी बनाने का रिकार्ड बनाया था ! पता नही यह रिकार्ड अब तक बरक़रार है या नही ,यदि है तो इसे तोड़ने की उम्मीद बस इंदौर सराफा मे जलेबी बेचने वाले एक महाशय से ही की जा सकती है ! ये सज्जन आपके आधा क़िलों ,एक किलो या दो किलो माँगने पर उतने वजन की एक ही जलेबी देने पर भरोसा करते हैं !
जलेबी कहाँ से शुरू होकर कहाँ ख़त्म होती है ये समझ पाना बेहद मुश्किल काम है ! जलेबी इतनी पेचीदगियाँ भरी होती है कि सीधे सच्चे होने का दिखावा कर रहे शातिर आदमी को जलेबी की तरह सीधा कहा जाता है ! पार पाना कठिन है जलेबी से ! इसलिये हमारे यहाँ जलेबी का ओरछोर ढूँढने के बजाय इसका भोग लना लेना ज्यादा अक़्लमंदी का काम माना जाता है !
कुल मिलाकर जलेबी का इतिहास भी इसी की ही तरह बहुत गोल गोल ,उलझा हुआ है इसलिये इतिहास को एक तरफ रखिये और इसके स्वाद पर ध्यान दें यही समझदारी है ! मेरा तो यही मानना है कि जलेबी ज़िंदाबाद थी और ज़िंदाबाद है ! हो सकता है कही और से पधारी हो यह हमारे यहाँ ! पर यह अब हमारी है और हमेशा हमारी ही रहेगी !

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