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उन्हीं का बेटा हूँ

औसत से कुछ लम्बे ,गौरवर्ण,आकर्षक नाकनक्श के मेरे पिता भीड़ में भी अलग पहचाने जा सकते थे ,अपने समय के होनहार विद्यार्थी थे वो ,ग्रेजुएशन के वक़्त वो सागर यूनिवर्सिटी की मेरिट लिस्ट में शामिल रहे थे ,पूरे जीवन वे किताबों से प्रेम करते रहे ! अपनी भेदती आँखों पर मोटा चश्मा लगाने वाले मेरे विद्वान पिता थोड़े अकड़ू तो थे ही ,नाक पर ग़ुस्सा धरे रहते थे ! आमतौर पर मानकर चलते थे कि वो ही सही है ,गालीगलौज करने के आदी भी थे ! सरकारी अफ़सर थे ! अपनी अपनी चलाना और लोगों को अपने अकाट्य तर्को से परास्त कर देना उनका प्रिय शग़ल था ! ज़ाहिर है लोगों से उलझना आये दिन की बात होती थी ! थोड़ी मसे भीगी तो अपने पिता से उलझ पड़े ,अच्छे खासे पुश्तैनी व्यापार को लात मार कर ,जो पहली नौकरी मिली उसी के होकर घर से निकल पड़े ,हाँलाकि फिर जिंदगी भर मलाल भी करते रहे इस बात का ,पर ऐसा करना उनके स्वभाव में शामिल था ,अब ऐसा करना तो नुक़सान करवाना ही है अपना ,उनका भी होता था, ज़ाहिर है वे बाद में पछताते भी थे पर दुबारा ना करे यह मानते नहीं थे !
माँ थी मेरी साधारण नाकनक्श की ,कम पढ़ी लिखी ,मेरी अल्पभाषी सीधी सादी माँ और उग्र विद्वान पिता का मेल था तो बड़ा अजीब पर उनका दाम्पत्य जीवन बढ़िया चला ,माँ तो सभी की अच्छा खाना पकाती है ,मेरी माँ भी स्वादिष्ट खाना बनाती थी ,अच्छा भोजन मेरे पेटू पिता की यह कमज़ोर नस थी जो मेरी माँ के हाथ में थी ,आमतौर पर चुप रहने वाली माँ उन गिने चुने लोगों में से थी जो मौक़ा देखकर सटीक वार कर उन्हें परास्त कर सकती थी ! लिहाज़ा माँ कभी कभी अपनी भी चला ही लेती थी पर वे एेसा कर सके यह कम ही होता था !
लगभग नास्तिक थे पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन्होंने अपनी मान्यताओं को लेकर कभी मेरी धर्मभिरू कर्मकाण्डी माँ का तिरस्कार किया हो !
अपनी ग़लतियाँ मंज़ूर भी कर लेते थे ,उसके लिये पछताते भी थे ! पैसो के या और किसी भी चीज़ के लालची नहीं थे ,कभी कभी सिगरेट पीने वाले मेरे पिता ने अपने छोटे भाई के अंतिम संस्कार वाले दिन अपने इस व्यसन को भी तिलांजलि दे दी थी !
अपने स्वास्थ्य को लेकर जिंदगी भर बेहद लापरवाह मेरे पिता अपने आप को फन्ने खाँ समझते थे इसमें तो कभी कोई संदेह नहीं रहा मुझे ,कभी किसी से बहुत पटी नहीं उनकी ,गिनती के दोस्त थे ,रिश्तेदारों से झगड़े झाँसे आम बात थी ,तार्किक थे विनोदी थे ! उनके तीखे मर्मांतक कटाक्षों से उनके आसपास वाले सदैव मरणासन्न स्थिति में बने रहते थे ,अब ऐसे आदमी से निभाना सबके बस की बात हो भी नहीं सकती थी !
लाख बुराइयाँ थी उनमें पर वे दिल के सच्चे थे ,खरे आदमी थे ,सही को सही और ग़लत को ग़लत कहना जानते थे !
ऐसे थे मेरे पिता जो इकसठ के होकर चल बसे ! भरोसा करते थे लोगों का ,धोखा खाते थे और फिर भरोसा करते थे ! उन्हीं का बेटा हूँ मैं ,और यह भी जानता हूँ कि मैं भी बिल्कुल उनके ही जैसा हूँ !

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