रचना के विवरण हेतु पुनः पीछे जाएँ रिपोर्ट टिप्पणी/समीक्षा

याद आ गया

आज तेरी गली से गुजरा ,
तो गुजरा हुआ कल याद आ गया।
वो चहेरा, वो मुस्कान, वो अदाए, वो जुल्फे
कसम से सब याद आ गया।
में नजरे दरवाजे पे टिकाए रखता,
तुम्हारा खिड़की से झांकना याद आ गया।
केसे भूलू? मेने ही पूछा था,
" शादी करोगी मुझसे"
बिन कुछ कहे तुम्हारा पलके झूकाना याद आ गया।
शाम का ढलना, तारो का टमटता देख,
चांद से माथे को चूमना याद आ गया।
"मजाक तो नही कर रही तुम?"
मेरा एसा पूछना,
पलके भीगा के तुम्हारा बाहोमे मुझे भरना याद आ गया।
जिस मोड़ पे थामा हाथ,
बिन कुछ कहे ,वही हाथ छोड़ जाना याद आ गया।
और बारात किसी गैर की आई देख उसकी चोखट पर,
सवालों का समा याद आ गया।
सर से पांव तक वो सजी थी,
मानो कोई आसमान से उतरी परी थी, फिर भी
डायरी में रखा एक सूखा फुल याद आ गया।
और आंखोमे खुशियों के आंसू थे उस बाप के,
जिनके लिए बेटी उसका अभिमान है।
जवाब सारे मिल गए,
इतनी स्वार्थी केसे हो सकती है आखिर बेटी थी,
बाप याद आ गया!

सोलंकी जिग्नेश"दास्तां"

 

टिप्पणी/समीक्षा


आपकी रेटिंग

blank-star-rating

लेफ़्ट मेन्यु