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सूखे दरख़्त

सूखे दरख़्त भी खड़े रहते हैं,
 कई दिनों तक एक नज़र की आस लिए।
जो सींच देगा उन्हें अपनेपन से,
देगा खाद और मिट्टी प्रेम से भरी,
और लहरा सकेंगे वो अपनी शाखायें फिर,
अनगिनत फूलों और फलों से भरी।
इसी इंतजार में ठंडे पड़ जाते हैं इक दिन,
और तब्दील हो जाते हैं टुकड़ों में,
उठा लिए जाते हैं यही टुकड़े
 और जलाए जाते हैं सर्द रातों में।
ठीक वैसे ही जैसे
कोई हँसता खिलखिलाता आदमी,
एक दिन अचानक चुप हो जाता है,
और लोग उस दिन कहते नही थकते,
जाने क्या हुआ होगा, पर आदमी अच्छा था।।

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