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पतंग की डोर और मैं

" यह मोह मोह के धागे मेरी उंगलियों से आ उलझे ",

जी हां आपने सही पढ़ा, मेरे और पतंग की डोर के लिए ऐसी कुछ पंक्तियां मेरे मन में आती है। कुछ रिश्ते जैसे कच्चे धागों से बंधे जाते हैं, परंतु पतंग एवं पतंग की डोर और मेरा रिश्ता जैसे पक्के धागे (मांजे) से बंधा है। बचपन से ही पतंगों के प्रति मेरा लगाव था।


पतंगे (जुगनू) जो रात में कभी कबार नजर आते हैं और पतंगे जो अक्सर मकरसंक्रांति के समय ही हवा में सवार होती नज़र आती हैं।


एक ही अक्षर से या कहें तो एक ही शब्द से लिखी गई इन दोनों अलग चीजों में बचपन से ही मेरी दिलचस्पी बहुत ज्यादा बढ़ती गई थी ।


मेरे बचपन में, पतंगे (जुगनू) कई बार भारी तादाद में किसी झाड़ियों वाले इलाकों से जब हमारी ट्रेन गुजरती या वहा सिग्नल ना होने पर रुकती तब ही नजर आते । उनका किसी विशिष्ट समय चमकना मुझे बड़ा अचंभित करता था।


ईश्वर ने भी क्या खूबसूरत सृष्टि बनाई है, सर्दियों की रात में टहलते वक्त (कभी कबार) जब हम झाड़ियों के करीब से गुजरते , तब हमें पतंगे (जुगनू) अपनी रोशनी से सर्दियों के अंधेरों को उजागर करते नजर आते


अगर सर्दियों के समय ही आने वाली मकर संक्रांति की बात करें ( जो भारत में खेती के लिहाज़ से भी बड़े मायने रखती है ), तो  महाराष्ट्र मे और खासकर मुंबई में तिलगुड़, तिल की चिक्की, गुड़ की रोटी वगैरा वगैरा ऐसे बहुत सारे व्यंजनों का जैसे घर पर उपहार ही मिल जाता हैं। परंतु इन सभी की मिठास पतंग के साथ और बढ़ जाती हैं ।


बचपन में हवा में उड़ने वाली रंगी बिरंगी पतंगे देख कर मुझे जैसे आसमान में किसी ने रंग भर दिया हो ऐसा लगता था । अलग-अलग जगहों से उड़ने वाली पतंगे, पतंगो की डोरी, मुझे जैसे बड़ा लुभाती थी। पतंग के पेच लड़ाने के बाद एवं पतंग कटने के बाद काई पो छे यह गुजराती भाषा का शब्द उच्चारण कर जोर से चिल्लाने का आनंद मैं छोड़ नहीं पाता।


मैं पहली कक्षा में (६ साल का) था, जब मुझे पतंग के प्रति लगाव शुरू हुआ। मैं सोचता, कि क्यों ना इन पतंगों में एक छोटासा कैमरा लगाया जाए और फिर इन्हें हवा में छोड़ा जाए ताकि पतंग उड़ाते समय यह पतंगों पर लगे कैमरों से ( रिमोट कंट्रोल के जरिए) हम अपनी तस्वीर खींच पाए


कल्पना तो बड़ी अच्छी थी, परंतु आज से करीब ३३ साल पहले तकनीकी तौर पर शायद यह मुमकिन नहीं था, जिस कारण मेरी यह कल्पना जैसे कल्पना ही रह गई थी। चूंकि अब तकनीकी विकास बहुत बढ़िया हो चुका है, तो मेरी यह कल्पना ड्रोन के रूप में जैसे सच ही हो गई है। ड्रोन (जो पतंग नहीं पर) पंख द्वारा हवा में जाकर हमारी तस्वीरें खींचते हैं, मानो बिना डोर के पतंग ही हमारी तस्वीर खींच रही हों 😃।


बचपनमें, मैं अपनी मां से मैं ₹५ लिया करता था। महज चार आने की पतंग आती थी, जो में 8 खरीद लाता, और बचे हुए ₹३ का मांझा, जिसे मैं एक छोटे से पत्थर में लपेटकर उसकी जैसे फिरकी बना लेता।


पतंग तो उस समय उड़ाने नहीं आती थी, पर शौक़ तो पूरा करना था, इसलिए किसी की पतंग उड़ाने में मदद लेकर, पतंग का मजा ले लेता। पतंगे खत्म हो जाने के बाद हाथ में छोटे-बड़े डंडे लेकर कटी हुई पतंगों को पकड़ने के लिए जब मैं भागता तो भागने की रफ्तार में (जैसे मैं पी. टी. उषा को भी) पीछे छोड़ देता।

फिर लूटी हुई पतंग और उससे आया हुआ मांजा लेकर उसे उस पत्थर से बांधकर हम फिर पतंग उड़ाने का मजा लेने शुरू कर देते। बचपन जैसे ईश्वर से मिली हुई एक सौगात रहती है नहीं 🥰


कटी हुई पतंग को पकड़ने के लिए मेरा भागना, मेरे माता-पिता को पसंद नहीं था । इकलौता बच्चा होने के कारण उन्हें मेरी काफी चिंता लगी रहती थी। पर मैं तो मैं ही था । कई बार पतंग पकड़ने के समय (ऊपर देख कर भागने के कारण),  नीचे पड़ी हुई कांच या ब्लेड से मेरे पैर का तलवा कट जाता, फिर खून रीझना शुरू हो जाता ।

अपने मां बाबूजी को इससे परेशानी ना हो इसलिए मैं माताजी की नजर में ना आकर किसी पड़ोसी के पास जाकर उनके घर से जख्म पर हल्दी लगा लेता। जिससे खून रीझना थोड़ी ही देर में बंद हो जाता, और हल्दी एंटीसेप्टिक का भी काम करती।


जैसे ही खून रीझना बंद होता, मैं फिर दौड़ पड़ता पतंग पकड़ने। आजकल इस दौड़ को हमने ट्रेडमिल का स्वरूप दिया है जिससे, (जैसे) हम शरीर से जानें वाली कैलोरीज़ का मूल्यांकन करते हैं परंतु बचपन में इस पागल शौक के कारण न जाने कितने किलोमीटर मैं दौड़ा होऊंगा और खुशी हैं की कैलरी नामक इस परेशान करने वाले शब्द से वाकीफ भी नहीं था । 😃


मेरे पिताजी को मेरा पतंग उड़ाना बिल्कुल पसंद नहीं था। उन्हें लगता था कि इस पतंग जैसे शौकों के कारण मैं अपने पढ़ाई की तरफ ध्यान नहीं दे पा रहा हूं। वह अपनी जगह सही भी थे, क्योंकि पतंगों का दौर जब शुरू होता तो मेरा ध्यान पढ़ाई से जैसे हट जाता।


रस्तेचलते कभी किसी भी पतंग की पेच लगते देखता तो मैं सब काम छोड़ पेच देखने रास्ते में ही खड़ा हों जाता और पतंग कटने के बाद ही वहां से जाता। इन बाहर उड़ने वाली पतंग का असर मेरे संक्रांति के समय होने वाली पढ़ाई पर भी होता, जब कई बार स्कूल का होमवर्क पूरा ना होने के कारण मुझे स्कूल में सज़ा मिलती।


मेरे पिताजी, अक्सर मुझे आकर समझाते कि मैं अपना ध्यान पढ़ाई में लगाऊं,  पर मैं ठहरा शैतानी करने वाला बच्चा, वो भला इन बातों को कैसे समझता। मैं फिर थोड़ी देर बाद (उनकी मुझपर से नज़र हटने के बाद) बाहर पतंगें देखने लग जाता।

आज मैं जब पीछे मुड़कर मैं खुद को देखता हूं , तो मुझे लगता है कि मेरे माता-पिता को क्या लगता होगा जब इन पतंगों के पीछे मेरी दीवानगी मुझे पढ़ाई से दूर रखती होगी।


जैसे जैसे मैं बड़ा होते गया, पतंग और उसकी डोर जैसे मेरी प्रेमिका ही बन गई।

नया साल जैसे शुरू होता, वैसे ही मेरा पतंग प्रेम फिर जाग उठता । जब आठवीं कक्षा में आया तब मेरे पिताजी समझ चुके थे कि पतंग जैसे मेरा पहला प्यार है । तो उन्होंने मेरी ख्वाहिश पूरी करने के लिए मुझे खुद होकर पतंग और मांझा ला कर दिया । उस दिन मुझे ऐसा लगा मानो वे कह रहे हो " जा बेटा जी ले अपनी जिंदगी "। मैं तो जैसे फूलों ही नहीं समा रहा था


२ साल बीते और जब मैं दसवीं कक्षा में आया, तो उन्होंने मुझे सख्त ताकीद देकर कहा कि इस बार अगर मेरे हाथ में पतंग नजर आई तो मेरी शामत आ जाएगी । वे अपनी जगह बिल्कुल सही थे, क्योंकि दसवीं की परीक्षा जैसे (आगे के करियर का) रुख तय करती है।


पर मैं तो मैं ही था, अपनी मां को मना कर दिन भर पढ़ाई कर मैं पकड़ी हुई पतंग लेकर मैदान में पतंग उड़ाने चला गया। इस बार पिताजी ने फिरकी नहीं दिलाई थी तो मां से मैंने बेलन लिया और उसी में मांझा लपेटकर फिरकी के तौर पर ले गया। करीब आधा घंटा बढ़िया पतंग उड़ाई, पर यह आनंद ज्यादा देर नहीं रुका। पतंग उड़ाते समय पिताजी के घर आने का समय मुझे याद ही नहीं रहा और पतंग उड़ाते उड़ाते सामने से हाथ में डंडा लेकर आते हुए पिताजी मुझे नजर आए।


उन्हें देख, मानो मेरे दिल की धड़कने थम सी गई। हवा में उड़ती मेरी पतंग और मां ने दिया हुआ बेलन उसी हालत में मैदान में छोड़ कर मैं डर के मारे भाग पड़ा। मेरे पिताजी, स्वभाव से जैसे बाहर से बिलकुल सख्त पर अंदर से बिल्कुल मुलायम शख्स थे, पर उस दिन उन्होंने जैसे जमदग्नि का ही अवतार ले लिया था।  मैदान से मेरे घर तक गुस्से में जैसे उन्होंने मेरी बारात ही निकाल दी। मेरे कारण माता जी को भी उनका गुस्सा सहन करना पड़ा।


हवा में गई पतंग देख कर आज भी मुझे वह वाकया याद आता है। मैं मां ने दिया हुआ बेलन ( डर के मारे ) मैदान में ही छोड़ आया और फ़िर कभी वापस ही लेने नहीं गया। पर बावजूद इसके मैंने पतंग (भले आधा घंटे के लिए) पर उड़ा तो ली थी, जो डाट खाने के बाद भी मेरे लिए एक उपलब्धि ही थी

जैसे-जैसे साल गुजरते गए, मैं इस पतंग की डोर से जैसे उलझता ही गया


कुछ साल बाद जब मैं इंजीनियरिंग के दूसरे साल की पढ़ाई कर रहा था, तब मेरे पिताजी का स्वर्गवास हो गया। आज यही पतंग की डोर, मुझे मेरे पिताजी की (उन कई सारी) यादों मे से एक याद से पिरोए हुए हैं। 🙂


आज भी जब मैं पतंग उड़ता हूं और किसी पिता को अपने बेटे या बेटी को पतंग के लिए डाटते हुए देखता हूं, तो वो यादें (जो अब करीब १९ साल पुरानी हो चुकी है), फ़िर उजागर हो जाती है

इस लेख के माध्यम से उन यादों को साझा करने का अवसर जैसे मेरे लिए सोने पर सुहागा जैसा काम कर रहा है ।


जब मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर काम करना शुरू किया, तो मकरसंक्रांति को ऑफिस से छुट्टी लेना या छुट्टी ना मिले तो आधा दिन का काम खत्म कर दोपहर घर आकर छत पर पतंग उड़ाना जैसे मेरा मकरसंक्रांतिरूटीन बन गया।


ईश्वर की कृपा से जब मैं विदेश ( मस्कत ) गया और वहां रहने लगा तो वहां पर स्थित गुजराती एवं कच्छी समाज द्वारा आयोजित पतंग (उत्तरायण) महोत्सव में शरीक होने लगा। शायद इसलिए कि मेरे बचपन की प्रेमिका को कभी यह ना लगे कि विदेश जाकर मैं जैसे उसे भूल ही गया हो 🤗 ।


आज भी कई बार (पतंग उड़ाने हेतू) मैं मेरे रिश्तेदारों के घर गुजरात के वडोदरा अथवा सूरत जाता हूं । वहां पर उत्तरायण,  जैसे एक बड़ा त्यौहार ही होता है । छत पर सुबह से जाना। सुबह का नाश्ता, दोपहर का खाना छतपर ही करना  तथा गाने लगाकर गरबा करना और सभी प्रियजनोंके संग ( प्रेम से गुड़ से बने) व्यंजनों का स्वाद लेना, मैं आज भी नहीं छोड़ता। किसी कारणवश अगर मैं गुजरात ना जा पाया तो मुंबई में ही इस चीज का आनंद ले लेता हूं ।

एक अलग नजरिए से सोचें, तो मेरे ख्याल में मानो पतंग (एक तरह से) हमें जीवन का संदेश देती है।


देखिए ना !!!!!, मानो वह कह रही हो, कि हवा में उड़ कर जैसे मैं अपनी अलग पहचान बनाती हूं, तरक्की करती हूं, वैसे आप भी अपनी अलग व अच्छी पहचान बनाओ


हवा में उड़ना यह तो मेरी फितरत है, हो सकता है जब आप तरक्की करें तो वह तरक्की भी आप के मन में (अहंकार महसूस होने के कारण) हवा में उड़ने की फितरत लाने का प्रयास करें।


पर जैसे मैं हवा में उड़ने के बाद भी अपनी बुनियाद से (मांझे की डोर से) बंधी रहती हूं, वैसे आप भी अपनी बुनियाद से (जिनके कारण अपने तरक्की की है), उन सभी से जुड़े रहे और उनका ख्याल रखें।


अगर कभी, कुछ कारणों से कटी पतंग जैसा महसूस हों, तो मायूसी की हवा में सवार ना होकर,  फिर एक नई पतंग (अवसर) अपने (मेहनत) के मांजे से जोड़ कर प्रयास करें, ताकि कभी भी आप अपनी अलग पहचान खो ना सके और फिर नई शुरुवात कर लोगों को प्रेरित करें


आशा करता हूं कि इस अलग से विषय को लेकर मैंने किया हुआ लेखन आपको पसंद आया होगा।


आप सभी को मकर संक्रांति के शुभ अवसर पर, मेरे एवं मेरे परिवार की ओर से ढेर सारी शुभकामनाएं ।


ईश्वर आप सभी को स्वस्थ, तंदुरुस्त और खुशहाल रखे यह मेरी उनसे प्रार्थना


आपका,

अमेय पद्माकर कस्तूरे

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