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फर्ज ही तो थे

फ़र्ज़ ही तो थे किसी का प्यार ना थे हम .
प्यार का रंगीन सा इज़हार ना थे हम

उसके ख़्वाबों में बसे थे जो हसीं मंज़र
वो शबाब-ए-जाम वाे गुलज़ार ना थे हम

दूरियाँ बख़्शी गई थीं इसलिए हमको
पास रहने के भी तो हक़दार ना थे हम

आस्ताने पर कोई झीनी सी चिलमन हाे
उसकी राहों पर कोई दीवार ना थे हम

दीप था ये प्यार तो सूने से मंदिर का
महफ़िल-ए-रंगीं न थे बाज़ार ना थे हम

ज्याें किसी कंगन की धीमी खनखनाहट हो
शोख़ पाज़ेबाें की तो झंकार ना थे हम

ज़प्त की भी तो कहाँ थी इंतिहा कोई
रंजिशाें के वास्ते तैयार ना थे हम

भूल से भी तो "निशात" उसने ये ना साेचा
ना सही हम फूल लेकिन ख़ार ना थे हम

शब्दार्थ

आस्ताना = दरवाज़ा.

विमल "निशात"
Vimalnishaat10@gmail.com

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