वो चुपचाप हट गया
यह कौन हमें इस दयार में पटक गया,
कि हर किसी को अपना होना खटक गया।
तौबा ये ऐश ओ इशरत की दिल फ़रेबियां,
दिल ख़ुद को छोड़कर कहां कहां भटक गया।
कितना है क़शिशमंद ये गुलज़ार जहाँ का,
ख़ारों में ऐसे उलझे कि दामन ही फट गया।
रूहानियत का ज़िक्र बेवकूफ़ करेंगे,
सारा जहान जिस्म की ज़द में अटक गया।
ये क्या ग़ज़ब है आख़िर ये माजरा है क्या,
हर कोई इस सवाल से पल्ला झटक गया।
ख़ुशियों में सभी साथ थे ग़म तन्हा कर गया,
देखा जिसे वो पतली गली से सटक गया।
अपनी भी ज़िन्दगी यूं ही ज़ाया गई जैसे,
कोई ज़रूरी काम अधर में लटक गया।
जो भी हुआ "निशात" हक़ीक़त से रू-ब-रू,
इन सारे झमेलों से वो चुपचाप हट गया।
विमल 'निशात'
(vimalnishaat10@gmail.com)