कविता - पिंजरा
पिंजरा है एक क़ैद यही है
उड़ने का सुख ?....... बोध नहीं है
पंख है पर उड़ान नहीं है
चेहरे पर मुस्कान नहीं है
बंध गया हर व्यक्ति यहाँ ... पर,
रिश्तों की यह गाँठ नहीं है
छूने चले आकाश सभी है
पंखों में पर जान नहीं है
गर तुझमे विश्वास अटल है
और उड़ने की चाह अटल है
उड़ो तुम, फैलाओ पंख अब
दूर करो मन से वहम अब
समय सही, यह क्षण वही है
अद्वितीय वह पल यही है
हाँ, पंखों में जान बची है
हाँ, पंखों में जान बची है