रचना के विवरण हेतु पुनः पीछे जाएँ रिपोर्ट टिप्पणी/समीक्षा

बचपन के यार

जी करे तब अगर हम भी

दोस्तों से रुबरु हो पाते

काश, बचपन के यारो के घर

सटे कवेलुओं जितने करीब होते ......(१)


फिर वही का साझ होता

फिर वही गलियारे होते

फिर वही मटरगश्ती होती

तपती धूप में पेड़ से तोड़े कच्चे आम भी साथ होते

और नमक की पुड़िया जेब में ले घूमते

काश, बचपन के यारो के घर

सटे कवेलुओं जितने करीब होते......(२)


दोस्तों में ही हम अपनी दुनिया खोजा करते 

समय के कोई जैसे पाबंद ही नहीं होते 

फिर कहीं दूर से जब, पिताजी आवाज़ देते 

तो उनकी की डांट के डर से

एकदूजे के पीछे छिप जाया करते 

काश, बचपन के यारो के घर

सटे कवेलुओं जितने करीब होते......(३)


बस वह बचपन की यारी ही थी 

जो घाव लगने पर भी मलम लगाया करती थी

आज भी अगर ऐसे ही कुछ मंजर होते

के काश, बचपन के यारो के घर

सटे कवेलुओं जितने करीब होते......(४)


न टूटने का डर था न बिखरने का

न गिरने का डर था न घाव लगने का

ऐसे मस्त रहते थे बचपन में

जैसे गुलाब की पंखुड़ियां खिलती हैं पानी में 

आज भी अगर ऐसे ही कुछ हमारे भाग्य होते

के काश, बचपन के यारो के घर

सटे कवेलुओं जितने करीब होते......(५)


बड़े होने की सज़ा

क्या खूब मिली हमें

अब तो यारों की याद को ही हम,

जैसे हैं दिल में समेटे रखते,

और फिर रहते सोचते

के काश, बचपन के यारो के घर

सटे कवेलुओं जितने करीब होते......(६)


न जाने कैसे ले गई किस्मत

इस दौड़ भाग वाली जिंदगी में

मानो बचपन ही छिन गया हो 

इस रोजी रोटी की कमाई में

जिंदगी के किताबों के कुछ पन्ने

हमे भी पलटने मिलते 

के काश, बचपन के यारो के घर

सटे कवेलुओं जितने करीब होते......(७)



टिप्पणी/समीक्षा


आपकी रेटिंग

blank-star-rating

लेफ़्ट मेन्यु