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आई के हाथ का थालीपीठ

*आई के हाथ का थालीपीठ*


मैं भून लेती हूँ थालीपीठ 

के लिये आटा वैसा

आई सेंक लेती थी जैसा

फिर भी नहीं बनता थालीपीठ

बिल्कुल आई के हाथ जैसा


गरम तवे पर सहज

ही थाप लेती थी

उसके छिद्रों में करीने से 

तेल डाल देती थी

सुनहरा सा भुनते ही 

थाली में पड़ता था

उस पर पिघला हुआ 

मक्खन भी डलता था


उस पर अंगुलियों से बनी क्यारियों में

पिघला नवनीत धार बन बहता था


चटनी और अचार भी उसके हाथों का

और उस पर ताजा और गाढा दही

इससे अजीज और लजीज कुछ 

भला इस दुनिया में और कहीं? 


दस जनों का परिवार और 

उस की अन्नपूर्णा की थाली थी

घर भर के भरण पोषण की 

जिम्मेदारी उसी ने संभाली थी


यज्ञकर्म का व्रत लिये वह

लपटों का दाह सहती थी

उसके लिये बचा न बचा 

इसकी चिंता न रहती थी. 


मैं बनाती हूं थालीपीठ, 

बेलकर दाह के दबाव मे

निशान अंगुलियों के नहीं 

रहते थापने के अभाव में


अंगुलियों के उभारों में था 

स्पर्श ममता का छिपा हुआ

स्वादिष्ट थालीपीठ में था

आनंद ज्यों रमा हुआ


बचपन की पंगती अब 

बस यादों में बसती है

आई गई, पर पक्वानों की 

गंध सांसों में बसती है. 


कवी- जया गाडगे

अनुवाद- सुधीर देशपांडे

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