जात पात
नरसिंह महेता गुजरात के आदि कवि माने जाते है। उनका जीवन काल 1632 से करीब 80 साल माना जाता है।
आज 2022 को वैसाखी पूर्णिमा , उनकी जन्म जयंती पर 2018 में मेरे द्वारा किसी स्पर्धा में भेजी गई कृति ।
यहां उस प्रसंग का जिक्र है जब पिछड़े और दलित वर्ग के लोगों के अनुरोध पर उनकी बस्ती में वे भजन कीर्तन करने गए थे और उस समय की चुस्त वर्ण व्यवस्था होने पर उन्हें ज्ञाती के बाहर रखा गया यानी ज्ञाती के द्वारा उनका बहिष्कार हुआ। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा क्यों की वह कहते थे की मेरी तो जात पात जो भी कहो, एक भजनीक की ही है।
तो पढ़े उस मेरे लेखन के शरुआत के दिनों में लिखी यह कहानी।
जातपात
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मैं नरसिंह मेहता। गुजराती आदि कवि। कृष्णभक्ति में सदैव लय। मेरे भजन कभी ध्यानावस्था में कृष्ण भगवान के द्वारा लिखाए जाते है। मैं मेरी करताल लिए मुख से गाए जा रहा हूँ।
"जो पसंद जगदीश को, उसकी चिंता छोड़ो।"
"जीवन की समस्याओं में डूबते हाथ कौन पकड़ेगा, श्रीनाथ।"
"कुत्ता बैलगाड़ी के नीचे चलते मानता है कि वही गाड़े का भार वहन करता है ऐसे जीवन की समस्या आप उलझते हो लेकिन करनेवाला कृष्ण ही है।"
मेरी ऐसी फिलसूफ़ी सुनकर लोग मेरे दीवाने हो गए।
संगीत तो मेरी प्राण है। मेरी भाभी ने उपहास कीया कि संगीत ही तेरी रोटी पकाएगा। मैंने अपना स्वाभिमान और कॄष्ण की सहाय साथ लिए घर छोड़ दिया। संगीत मेरी आराधना, भक्ति मेरा रोज़गार, काव्य मेरी तपस्या।
मेरे कृष्ण ने दिया ज्ञान सार्वजनिक है। शहर के दलित वर्ग ने याचना की कि मैं उनकी बस्तीमें जाकर कीर्तन करूं और इन्हें कुछ ईश्वरदत्त ज्ञान दूँ।
मैं तैयार। एक शर्त रखी कि मेरे शामल को स्वच्छता पसंद है। आप अपनी बस्ती स्वच्छ करें, दीपक जलाएँ, खुद भी नहा धो कर स्वच्छ वस्त्र पहनें। कोई प्रसाद या भोजन के नाम खर्च नही।
सब कबूल हो गए और मैं मेरे साथ अदृश्य मेरे कृष्ण को लेकर गया, पूरी रात भजन किए। सुबह होते वापिस घर आ कर पूजा पाठ में लग गया।
लेकिन मेरी नागर ज्ञाति में आक्रोश फैल गया। मैं उच्च वर्णीय उन पिछड़े वर्ग के बास में क्यों गया? ज्ञाति के मुखिया लोगो ने मुझे ज्ञाति से बाहर निकाला। क्या फर्क पड़ता है? मैं पूरा स्वाभिमानी। ज्ञाति को मेरे कृष्ण की और मेरी ज़रूरत होगी, मुझे किसी की नही।
ऐसा ही चलता रहा। अब मेरे बेटी और बेटा लग्न वयस्क हो गए। मैं अब ज्ञाति से बाहर था। कोई बात नहीं। कृष्ण पर भरोसा।
उस समय तो दूल्हे के घर से गागर भर सोना कन्या को देना पड़ता था। वह भी मैंने उपार्जित नहीं कीया था। कोई तो ज्ञाति में तैयार हुआ बेटी देनेको। बारात? मेरी जात पात यानी भजनिकों ही थे!
समधी की पत्नी ने खूब गर्म पानी नहाने दिया। मेरा उपहास । मैंने मल्हार राग गाया और बरसा पानी।
बेटी की सास ने कहा मेहता क्या देगा? बेटी ने धीमी लेकिन स्पष्ट आवाज़ में कहा “स्वाभिमान, गर्व, ज्ञान।“
सास ने कहा, “एक पत्थर भी देना। सोना तो कहाँ?” लग्न मंडप में जब भेट सौगाद खुली तो मैं भी देखते रह गया, सोने का बड़ा पत्थर।
अब ज्ञातिजनों ने मुझे ज्ञाति में लेने का फैसला सुनाया। पूरी ज्ञाति को मेरे द्वारा भोजन खिलाकर। मैंने ऐसा करने से मना कर दिया। मै ज्ञातिवाद से ऊपर उठ गया हूँ।
थोड़े साल में मेरी पत्नी और भाभी दोनो चल बसे।
मुझे क्या? मैंने गाया ‘भला हुआ भांगी जंजाल, सुख से भजेंगे श्री गोपाल।”
और आज तक गोपाल ही मेरा सखा है, ज्ञान ही मेरा धर्म है और भजनिक मेरी जात पात।
-सुनील अंजारीया
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