महिमा मंडन
'मदर्स डे' पे सब तरफ पढ़ती, सुनती हूँ मैं "माँ की महिमा",
वैसे बाकी दिन कहेंगे "सारी माएँ करती है, तुम क्या करती हो निराला?"
हमेशा कहते है उसे "त्याग और कर्तव्य की मूर्ति हो तुम"।
बदले में वे कुछ अपेक्षा करे तो कहते है "कितनी स्वार्थी हो तुम"।
गर्भ में बच्चा पैदा होने से अंत तक उसे 'चिंता' हो जाती है शुरू।
कभी जता दे, तो बच्चे कहते है "ड्रामा हो गया इनका शुरू"।
छोटे होते थे तो माँ के पीछे या हाथ पकड़कर चलते रहते थे।
वही बड़े होने के बाद बूढ़ी माँ का हाथ पकड़ने में या उसके साथ चलने में शर्माते है?
संस्कारों से सींचकर जो माँ बच्चों का 'व्यक्तित्व' है सवारती;
न जाने कैसे उसी की औलाद उसके व्यक्तित्व का मजाक है उड़ाती।
माँ तो खुशी से कभी टीचर तो कभी दोस्त बनकर बच्चों को है पाठ पढ़ाती।
कभी वो चाहे बच्चे उसके टीचर या दोस्त बन जाये तो उनके माथे पर शिकंज है आ जाती।
इस वास्तविकता को देखकर उसका मन उदास हो जाता है,
एक दिन का खोखला "महिमा मंडन" उसे नहीं चाहिए।
"रोज प्यार और इज्जत दे" तो ही उसकी आत्मा को खुशी मिले,
ये आज के दिन यदि जान लें सारे बच्चे तो ही "मदर्स डे" दिल से मना पाएंगे।
© राधिका गोडबोले