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मन की गहराई

वो बहुत निराश दिखाई दे रही थी। बहुत देर उसके साथ बैठे रहने के बावजूद उसने कुछ भी नहीं कहा। हम दोनों बचपन की सहेलियां थीं। लेकिन रमा को कॉलेज के पहले साल में ही प्यार हो गया और वो उस लड़के के साथ भाग गई।

सारी बातें सोचती और उसे इस तरह इतनी देर से चुप बैठे देख मेरा मन बहुत ऊबने लगा और अपने समय की बर्बादी का सोच गुस्सा भी आने लगा।

"ये भला क्या बात हुई रमा? कितनी देर से बैठ कर तुमसे पूछ रही हूँ कि आखिर हुआ क्या है? लेकिन तुम्हारे मुँह से कुछ नहीं, कुछ नहीं सुनकर मेरा मन।" बोलकर मैं कुछ देर को चुप हो गई। लेकिन रमा से कोई जवाब न पा कर मैं फिर बोली।

"अब बस हो गया। देखो मैं जा रही हूँ। जब कुछ कहने का मन करे तो फोन कर लेना, समझी?"

मैं उठी तो उसने मेरे हाथ को पकड़ लिया। मैं यही तो करती थी जब बहुत उदास और परेशान होती थी। रमा का हाथ पकड़ लेती थी, उसके हाथों की गरमाइश से जैसे मुझे कुछ पोसिटिव एनर्जी मिलती थी।

मैंने उसके हाथ को और ज़ोर से पकड़ लिया। जब मुझे अपनापन चाहिए होता था तो रमा हमेशा मेरा हाथ पकड़ने को तैयार होती थी फिर आज मैं, मैं उसे अकेले कैसे छोड़ सकती हूँ? यही सोचकर मैंने उसे कहा।

"मैं हूँ यंही हूँ। कंही नहीं जा रही, तुम जितना समय लेना चाहती हो लो। मैं तुम्हारे साथ हूँ रमा।"

उसकी आँखों से अब आंसू लुढ़क कर बाहर गिरने लगे।

"मुझे नहीं रहना उसके साथ।"

उसने अपने दिल की बात कह दी थी। मैं उसका साथ देना चाहती थी पर मेरे मन की गहराईयों को ये अंदाजा न था कि रमा अकेले कैसे जी पाएगी?

"ठीक है, तुम चलो मेरे साथ। मेरे घर चलो रमा। हम कुछ देख लेंगे मिलकर।"

"मुझे नौकरी मिल गई है। तीन घरों में और पास के एक स्कूल में।"

"क्या? क्या करोगी तुम वंहा?"

"मैं स्कूल में छोटे बच्चों को पढ़ाऊंगी और फिर तीन घरों में खाना बना लूँगी।"

"लेकिन रमा?"

"नहीं, तुम मेरा साथ दोगी। तुम ये नहीं कहोगी कि ये काम बहुत छोटे हैं। मैंने अपने दम पर ये नौकरियां ढूंढ निकाली हैं और करूंगी।"

"लेकिन रमा।"

"अब मत रोको मुझे प्लीज। काश मैंने प्यार के चक्कर में पढ़ाई न छोड़ी होती। अब खुद को नहीं रोकना चाहती। तुम मेरे साथ हो न?" उसकी आँखों के आत्मविश्वास को मैं अब तोड़ नहीं सकती थी। न उसे नजरअंदाज कर सकती थी, इसलिए मैंने कहा-।

"मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ रमा। हमेशा मन की गहराइयों से तुम्हारे साथ हूँ।"


समाप्त

सोनिल सिंह

स्वरचित/मौलिक

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