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कोरोना काल का सावन.

श्रावणमास में कोरोना !

श्रावणमास प्रारम्भ होगया है.जेठ की तपन ,आषाढ़ की तीक्ष्णता का सम्मिश्रण श्रावणी धूप को ऐसा स्वरूप प्रदान करता है कि सिर चकरा जाए .  आकाश में कभी घने काले बादल तो कभी समुद्र की लहरों से उमड़ते सफ़ेद बादल छा जाते हैं .

एक दो वर्षा के बाद मौसम में आया परिवर्तन ऐसा लग रहा है मानो किसी कहानी के नीरस लम्बे प्रसंग को पढ़ते पढ़ते सरस प्रसंग के पृष्ठ खुल गए हैं और ऊँघता मस्तिष्क चेतन होकर फिर से कहानी में रुचि लेने लगा है .

इस परिवर्तन से मन में कुछ थरथराने लगता है .पर क्या ? यह तो श्रावणमास जाने.

वो जानता होगा कि सरस और हरियाले वातावरण में युवतियों का मन उमंगित हो क्यों झूलने लगता है . क्यों किसी को दूर बसा मायका या विरहिणी को अपना प्रिय याद आता है.यही ऋतु है जो कहीं तांडव कर संहार भी कर देती है .

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सावन के प्रथम सोमवार को आवासीय सोसायटी में बने मंदिर के बाहरी चबूतरे पर बैठी कुछ भद्र महिलाएँ ढोलक ठुनकाती गा रही थीं - आया सावन ,बड़ा मनभावन

            रिमझिम की पड़े फुहार राधा,

             झूल रही कान्हा संग में....!

सभी महिलाओं ने मास्क लगा रखे थे .मन में आया कहूँ -राधा झूल रही कोरोना संग में .

पर ह्रदय में बसे भक्ति भाव ने आँख तरेर दी .

श्रावणमास के हमारे व्रत त्योहारों पर भी कोरोना ने आँख तरेर रखी हैं

शिवरात्रि का उत्साह सड़कों पर देखने को नहीं मिल रहा है . बरसात के चिपचिपे मौसम में उमस,धूप और कभी वर्षा की मार झेलता,हरिद्वार से निकल कर मेरठ ,ग़ाज़ियाबाद,दिल्ली ,हरियाणा,पंजाब,राजस्थान तक बहता केसरिया प्रवाह निःसंदेह जनता और प्रशासन केलिए सिर दर्द था .  पर रुका कब था ?

नागपंचमी के मेले गाँव में नहीं लगे .

हरियाली तीज गाँव ही नहीं शहरों में भी पूरा रंग बिखराती है.इस त्योहार के लिए विशेष रूप से बने-घेवर फेनी के बड़े बड़े थाल ,गुझिया मठरी की सजी कोथली की डलिया हलवाई की दुकान से मचल मचल कर सड़क तक फैल जाती थीं,चाहे उन पर मक्खी ,मधुमक्खी,ततैएं भिनभिनाते रहें. अब कहाँ हैं ?

मेले के चाट गोलगप्पे,आईसक्रीम के ठेले ,ग़ुब्बारे ,चू्डी वाले  ,कोमल हाथों को पकड़ कर उन पर मेंहदी सजाते कलाकार ! वह सब तो हमारे गाँव शहर की संकरी गलियों से ही निकल कर आते थे ,अप्रवासी नहीं थे.

कहाँ हैं ?

बहन बेटियों को ‘सिंधारे ‘ में दी जाने वाली साड़ियाँ अधिकतर ऑनलाइन ख़रीद कर भेजी जारही हैं .

पर एक के बाद एक खुलती लुभावनी साड़ियों की सर सरसराहट,पूरा डिज़ाइन खोल कर दिखाने के लिए तत्परता से कमर की बैल्ट में चुन्नट ऊंडस कर ,काँधे पर आँचल फहराता वो (सेल्समैन)युवक ! !

आह ! ऐसा प्रफुल्ल वातावरण कहाँ है  ?

रक्षाबंधन की प्रति वर्ष सुंदर नवीन अलंकृत राखियाँ भी डिब्बे में बंद हैं .हाथ में उठा कर चयन नहीं करना.ऑनलाइन भी राखियाँ जा रही हैं .

भाई-बहन सैनेटाइजर और मास्क लगा कर एक दूसरे के सामने बैठेंगे .वीडियो कॉल से संतुष्ट हो जाएँ , यह भी संभव है .

कोरोना कोरोना कोरोना

ख़रीदारी ही क्यों स्कूल ,ऑफिस,गोष्ठियाँ सब ऑनलाइन हैं.सुबह की भाग दौड़ ,संध्या को घर पहुँचने का उत्साह हमारे जीवन की यह छोटी दिनचर्या तितली की तरह यहाँ वहाँ उड़ती हमें लुभा रही है .

कैसे पकड़े इसे हम ?

अब कोरोना के साथ जीवन प्रवाहित हो रहा है.

*

सीमा पर चीन के साथ तनातनी है.कश्मीर में अब भी आतंकवादी मर रहे हैं ,सैनिक शहीद हो रहे हैं .

उ.प्र में पुलिस और दबंगों की दोस्ती और दुश्मनी ज़ोरों पर है.

सोशलमीडिया पर मोदी कीआलोचना,राहुल का मज़ाक़ बढ़ता जारहा है .सबके अपने विचार ,अपनी धारणा !    क्या अंतर पड़ता है ?

हाँ थोड़ा अंतर पड़ा था जब छोटे शहरों में आत्मविश्वास से भरी महिलाओं पर कटाक्ष किया जाता था -इंद्रागांधी से कम  नहीं समझती है अपने को .

जब ग्रामीण क्षेत्रों में कटाक्ष किया जाता था -बड़ी मायावती बनी घूमें है .

अब आप नेहरू प्रेमी बनें या मोदी भक्त

राहुल को दुलराइये या शाह पर हंसे.

सब जानते हैं करिश्मा करने वाले अंत में ग़लत सिद्ध होते हैं .

आज कोरोना से लड़ते मरते,डरे सहमे,सामना करते जन जीवन का यह सामान्य विचार प्रवाह है.

कोरोना के घने गरजते बादल और अन्य विसंगतियों के बीच हम रिमझिम फुहार की आशा में जी रहे हैं और जीते रहेंगे .

-लेखिका-

रश्मि पाठक

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