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चंचल चितवन

चंचल चितवन



प्यार.....  
किसे कहते हैं प्यार?
लगता था जैसे कपडों के साथ साथ उसके दिमाग की भी पिटाई हो रही थी। एक अस्खलित विचारधारा उसके मन में चल रही थी। 
एक छोटा बच्चा जो महसूस करता है, वह होता है विश्वास.... 
एक माँ को अपने बच्चे के प्रति जो है, वह है ममता... 
पिता की भावना होती है पितृत्व.... 
दादा-दादी को वात्सल्य होता है.... 
भाई-बहनों के बीच होता है स्नेह.... 
दोस्तों के बीच, दोस्ती.... 
जवानी में जो उभरता है, वो आकर्षण...  
पति पत्नी के बीच जो है, ऊसे सामाजिक रूप से स्वीकृत बंधन कहते है!!!
वयस्कता में, आदत... 
बुढ़ापे में, जरुरत..
और जब आदमी अकेला पड़ता है तब बस यादें रह जाती है।
तो, प्यार क्या है?

उसकी विचारधारा पता नही और कितने लंबे समय तक चलती, लेकिन सासूजी की आवाज सुनाई दी, जो बाहर के कमरे में, भगवान के नाम का जाप कर रहीं थी। 

"अरी, अब नल बंद भी कर दो। कब से तेज़ पानी ऐसे ही बहे जा रहा है, इस तरह से कोई कपड़े धोता है क्या? कपड़े तो हम धोया करते थे, कपड़े की गठरी सिर पर उठाकर दूर नदी के पास जाना पडता था।" 
सास का बोलना जारी था, लेकिन उसका ध्यान उस बात पर कहाँ था? उसके दिमाग में कुछ अलग हंगामा मचा हुआ था। (हा तो… मैंने कब मना किया? आप ही धो लेती... इतने सारे कपड़े आज धोने पडे़, तब पता चले… अपने वक्त में तो सुबह से कपड़े की गठरी लेकर नदी पर चले जाते थे, तो दोपहर में देर से आते थे। घर के बाकी काम तो आपकी सास ही निपटा लेती थी। हमें इतनी आशाएश कहाँ? बैठे बैठे पूरा दिन ही भगवान का नाम लेते रहेंगे, लेकिन ऐसा नहीं की कपड़े धोने में मदद कर दें। वैसे तो कपड़े धोने में साथ ना हो वहीं अच्छा है, अकेली होउँगी, तो थोडा उन्नीस-बीस करके काम जल्द ही निपटा लूंगी। लेकिन दाल-चावल और सब्जी तो बना ही सकते है ना? पर नहीं, उन्हें तो बैठे बैठे अपनी जबान चलानी है सिर्फ....)
जल्दी से कपड़े सुखाकर वह रसोई की और दौड़ पडी। घड़ी की सुईयाँ बता रही थी कि पूरीयाँ बनाने से पहले अगर दस मिनट का ब्रेक ले लिया जाये तो चल जायेगा। बस यही सोचकर ड्रोअर में रखी पॉकेट डायरी निकाल ली और प्यार के बारे में मन में जो भी लहरें उठीं थी, उसे नोट कर लिया। फिर उसी जिपलॉक में वापस पैक करके डायरी और पेन ड्रोअर में रख दिये। और इससे पहले कि सास एक और आवाज़ लगाती, वो पूरियाँ बनाने लगी।  

"चलो, जल्दी जल्दी, तैयार है छोटी छोटी, गोल गोल, गर्मागर्म पूरियाँ।"

और एक साथ अठारह आसन बिछाये गये। सास परोसने बैठ गई। बारी बारी से, उन्होंने सभी की प्लेटों में भिन्डी की सब्जी, मुंग, फ्रुटसेलड, कटलेट, समोसा, चटनी और पापड़ परोसे। इतनी देर में तो उसनें पतिला भरके पूरियाँ बना ली। लेकिन, उसे खत्म होने में देर कितनी? लगता था जैसे रेस लगी थी। वे अठारह,और वह खुद अकेली। फिर भी उसे विजयी होना ही था, वो भी चेहरे पर एक बड़ी सी मुस्कान चीपकाए हुये। दिवाली के दिन थे, सभी इकट्ठे हुए थे। दोनों ननंद दिवाली मनाने के लिए सपरिवार आई थी। मंजरी, हितेशभाई की मंगेतर, उसे भी बुलाया गया था। दोनों छोटे देवर-ओजस और तेजस, खुशी के मारे मंजरी के आगे पीछे ही घूम रहे थे। सभी बच्चे वास्तव में छुट्टी का आनंद ले रहे थे। और दादा-दादी की खुशी का क्या कहना ! बस उनके साथ जितनी बार नजर मिलती थी, मानों एक ही बात कहना चाहते थे, इस प्रकार पूरे परिवार को एक साथ जोडकर रखना। पारिवारिक एकता बनाए रखना। बड़ों का आशीर्वाद, और क्या चाहिये?

"बहुरानी, पूरियाँ लाना जरा!"

सास की आवाज सुनकर वह अकेले में हंस पडी। पता नहीं आजकल ये क्या हो रहा है? कभी भी सोच में पड़ जाती हूँ। "जी, लाई " कहकर, उसने एक और बड़ा पैन भरकर पूरीयाँ सास को पकडाई। साथ ही, सबको प्यार से जोर देकर कहा कि सभी लोग अच्छे से खाना खाये। अच्छा था कि रसोई में कोई नहीं था। हॉल में, एक ही पंगत में सभी को खाने के लिए बिठा दिया था। ठीक है, तो पंगत भी एक साथ उठेगी। फिर मैं और माँ, दो ही बाकी रहेंगे। रमली आ भी जाये, तो भी जब-तक इतने बर्तन साफ़ करेगी, हमारा खाना भी हो जायेगा।  

उसने फिर सिर झटक दिया। फिर से विचारवायु! उसके हाथ पूरियाँ बनाने का काम कर रहे थे मगर दिमाग में कुछ ना कुछ चल ही रहा था। अभी तो सामान की पेकिंग भी बाकी है। बस ये खाना खत्म हो जाये, तो थोड़ा नास्ता भी बना लूंगी। माताजी के दर्शन के लिए जाना हैं, तो वहाँ काम आयेगा। रात के तीन बजे गाड़ी रवाना होगी, तब जाकर सुबह सात बजे तक पहुंच पायेंगे। छोटा-सा गाँव है। वहाँ कुछ भी नहीं मिलेगा। सब कुछ साथ रखना पडेगा। फिर बच्चे भी तो साथ में है। पता नही कब कीस चीज की जरूरत पड़ जाये? 

" बहुरानी, पूरियाँ लाना..." और फिर से वह बड़ा पतीला लेकर दौड़ पड़ी। 

***

"अरे सुनो, गाड़ी सुबह तीन बजे तो स्टार्ट करनी ही होगी।"

"सुबह?" 
उसने होंठ थोड़े मरोडे तो परम ने कहा, "हाँ, सुबह ही कहेंगे, सो कर उठेगें तो सुबह... और क्या?"

"हम्म .. यह भी सही है। लेकिन सुबह तो उसकी होती है, जो रात को सोते हैं! मेरे लिए तो...." 

"हाँ, हाँ, मुझे पता है। अब सुनो, स्नान करके ही जाना होगा। तुम तो जानती हो वहाँ का सिस्टम। ना तो टोईलेट होगा और ना ही बाथरूम! वहाँ तो सब खुलेमें ही… "

"चिंता मत किजिए। मैं आपको सबसे पहले जगा दूंगी, ठीक डेढ़ बजे। आप के शांति से तैयार होने के बाद ही दूसरों की बारी।"

"अरे ना, ना, मुझे मत जगाना। तुम्हें तो पता है ना कि मुझे चलती कार में बिल्कुल ही नींद नहीं आती है। मुझे तैयार होने में कहाँ वक्त लगता है? ज्यादा से ज्यादा दस मिनट और बंदा तैयार। एक काम करो, तुम सबसे पहले तैयार हो जाना। तुम्हें सारी पहननी होगी। और वैसे भी, अभी तो सारी पहेनने की प्रेक्टिस भी छूट गई होगी।"

"ओहो!आये बडे.... आपसे तो कम ही वक्त लगता है मुझे तैयार होनेमें, और क्या कहा आपने? सारी की प्रेक्टीस छुट गई है ऐसा..... ये मंजरी को देखा? पता है ना कि सब आये हुए हैं? फिर भी जीन्स पहना था कि नहीं? वहां कोई क्यों नहीं बोलता हैं? मैने कितने बरसों तक सारी पहेनी? इस मंजरी के साथ रिश्ता तय हुआ, तब जाकर मुझे ड्रेस पहनने की अनुमति मीली। वो भी इसलिए की मंजरी को सारी पहनना नहीं आता। और कहते है प्रेक्टीस छुट गई होगी। जानते भी हो माँ ने मुझसे क्या कहा? यही कि अगर मंजरी को नहीं पता कि सारी कैसे पहननी है, तो मुझे इसे तैयार करना होगा, और कहना है कुछ?" 
  
"अरे, तुम तो बहुत हाइपर हो गई।"

"तो? ना होउं? मैं भी आई थी शादी के पहले, दीवाली मनाने। माँ से पूछो, क्या मुझे सारी पहनानी पडी थी? अरे, मैंने तो पूरी की पूरी रसोई संभाल ली थी, और ये? ठीक है... ,लव मेरेज है इसलिए कोई कुछ भी नहीं कहेता। गलती मेरी ही है कि मैने सिर्फ मेरेज किया!”

"तुम भी ना! कहाँ कि बात को कहाँ ले जा रही हो?"

"सही तो जा रही हूँ। मेरे साथ तो सिर्फ कामका ही नाता है। मैं अकेले ही सारी जिम्मेदारियां निभा रही हूं। कभी कुछ कहा मैंने? कर्तव्यपालन में कभी भी पीछेहठ की है क्या? लेकिन आप लोगों को कभी संतुष्टि हुई? चाहें कितना भी कर लूं, आप लोगों को तो कम ही लगता है।"

और अंजाने में ही उसकी आँखो से आँसु गिर पडे। 

"अब इसमें रोने की बात कहाँ से आई? बाहर सब लोग सुनेंगे।"

परम ने उसके कंधे पर हाथ रखा, तो उसने अपना कंधा झटक दिया। 

"तुमसे तो बात करना ही बेकार है।"

परम भी गुस्सा करते हुए वहाँ से चला गया। और उसने दुपट्टे के सिरे को अपने मुँहमें दबाकर पूरी कोशिश की कि रोने की आवाज़ बाहर न जाए। आज फिर उसके ना चाहने पर भी झगड़ा हो गया। आजकल ऐसा ही हो जाता था। लाख ना चाहने पर भी, छोटी से छोटी, सबसे तुच्छ बात भी विवाद में बदल जाती थी। पता नहीं, उसे क्या हुआ था? वो ऐसी तो नहीं थी! उसकी शादी को छह साल हो चुके थे। इस घर में वो सबसे बड़ी बहु बनके आई थी। आते ही सबकी प्रिय बन गई। आज भी घर में सभी के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध था, लेकिन परम के साथ, ना जाने क्यों?

उसने फिर पैकिंग पर ध्यान केंद्रित किया। वैसे भी थोड़ी देर में शाम का खाना बनाना शुरू करना था। तभी तो सबको समय पर डीनर परोस पायेंगी।

***

"चलो, सब तैयार? कार आ गई है।"

ये ए ए .. सभी बच्चे पहले ही गाड़ी में चड बैठे। सब लोग थोड़ा थोड़ा सामान लेकर कार तक पहुँच गए। वो सबसे आखिर में थी। घर को ताला लगा कर, नाश्ते का सबसे भारी मुद्दा उठाते हुए कार तक पहुँची, तो थोड़ी देर के लिए तो वह देखती ही रह गई। कार थी तूफान, थर्टीन सीटर, और वे लोग थे, बड़े और छोटे मीलाकर, पूरे बीस ... !!! छह बच्चे और चौदह बड़े। इसमें कैसे सेट होंगे? फिर कंधे ऊंचकाकर मनमें ही बुदबुदाई, मेरे सोचने से क्या फर्क पड़ जाएगा? वैसे भी मुझे तो वहीं बैठना है जहाँ कहा जायें, और क्या? वह चुपचाप खड़ी रही और सारा खेल देखती रही।

काफी मशक्कत के बाद, परम ने सब व्यवस्था कर दी। ड्राइवर के बगल में आगे की सीट पर पिताजी और ओजस। दादा, दादी और मम्मी बीच की सीट पर, और दो ननंद, दोनो नंदोइ, हितेश और मंजरी, तेजस, परम, वह खुद और कुल मिलाकर छह बच्चे और सारा सामान, सभी पीछे की सीट पर। सब ऐसे ठूंस ठूंस के बैठे थे कि पैर तो क्या पैर की उंगली तक को हिलाने की जगह नहीं थी!

वह थोड़ी चिढ सी गई, लेकिन परम जो भी करे, फाइनल। और, कोई अन्य विकल्प भी नहीं था। जब तक घर वापस ना पहुंचे ऐसे ही बैठना था, ठूंसंठूंस। 

जैसे तैसे 'पियावा' पहुंचे। चाय और नाश्ता करने के बाद, उन्होंने माताजी के दर्शन किए और भक्ति रस में डूब गए। कुल मिलाकर सिर्फ ढाई घंटे तक वहाँ रुके। जितना समय वहाँ पहुंचने में लगा था उतना वक्त वहाँ रुके भी नहीं! 

और फिर से चलो.... चलो.... फिर से सबने अपनी अपनी सीट पकड ली। अंताक्षरी खेलते हुए कब पालिताना डैम के देरासर पहुँच गए पता ही नहीं चला। वहाँ भोजनालय में भोजन करके फिर से कार में, वैसे ही… ठूंसंठूंस! 

   अब हर कोई हल्की हल्की झपकीयों में गोते लगा रहा था। जब आपस में सिर टकराते तो जरा सी आँख खोल के देख लेते और फिर वापिस निंद्रादेवी की शरण में चले जाते। उसकी आँखें भी भारी हो रही थीं। लेकिन सोती कैसे, गोद में छोटी जो सो रही थी। फिर भी हल्की सी झपकी तो लग ही जाती थी। तभी अचानक उसे पीठ में हल्की सी सिरहन महसूस हुई और वह चौंक गई। सहारे को छोड़कर सीधी बैठ गई। शायद खुली खिड़की से कुछ... उसने अपना सिर घुमाया और पीछे देखने की कोशिश की। फिर से एक बार झनझनाहट हुई। उसी समय, परम के चेहरे पर एक छोटी शरारती मुस्कान दिखाई दी। उसने महसूस किया कि यह परम का हाथ था जो सीट के पीछे से बाहर निकलकर उसकी पीठ को सहेला रहा था। वो मन ही मन में मुस्कुराई और स्पर्श का आनंद लेने लगी।

यह स्पर्श… एक अरसा बीत गया था ऐसे स्पर्श को महसूस किये! उसे वे दिन याद आ गए, जब वह सगाई के बाद पहली बार दीवाली मनाने ससुराल आई थी। तब स्थिति बिल्कुल अलग थी। पहली बार उसने गाँव देखा। उपर से ये घर तो, एक संकरी गली से गुजरने के बाद का चौथा घर। तीन उंचे स्टेप्स के बाद एक छोटा सा ओटा और उसके बाद दहलीज और फिर एक हॉल और अंदर एक कमरा। शौचालय के लिए बाहर ओटे पर ही छोटी सी जगह दरवाजा लगाकर अलग कर रखी थी। और बाथरूम के तो क्या कहने? हॉल के एक कोने में एक छोटा सा, डेढ़ फूट बाय डेढ़ फूट का बाथरूम, वो भी बिना नल के। बगल में लकड़ी की सीढ़ियाँ थी, जो उपर रसोईघर में निकलती थी और बगल में एक और कमरा। और एक सीढ़ी उपर की ओर जा रही थी। उपर की मंजिल पर एक और कमरा और उसके उपर पतरे की छत। चूहों और बिल्लियों का स्थायी निवास स्थान। घड़ी भर के लिए तो रोंगटे खड़े हो गए थे। लेकिन उसने चेहरे पर मुस्कान जमाये रखी थी !!!

और इसी कारण परम का मन जीतने में सफल रहीं थीं। कहाँ वह शहर में पली-बढ़ी और कहां ये। परम का उसको पूरा सपोर्ट था। सुबह वह स्नान करने के लिए गई, तो परम ने बाथरूम में गर्म पानी की बाल्टी भी रख दी, इतना ही नहीं, "तुम्हें स्विच नहीं मिलेगा" कहते हुए लाईट जलाने के बहाने, वो आधे बाथरूम तक घुस आये.... और वहाँ पर ही दिया था पहला चुंबन... सामने खाट के उपर दादाजी बैठे थे फिर भी...छट्… बिल्कुल ही बेशरम।

अनजाने में ही उसके कान की बूट लाली पकड़ने लगी। उसके होंठों पर मुस्कान आ गई। उसी वक्त बजे मेसेज टोन ने मानों उसे वापस वर्तमान में खिंच लिया। हितेश और मंजरी एक दूसरे के सामने बैठे थे लेकिन फिर भी व्हाट्सएप से बात कर रहे थे! एक अजीब सी कसक उठी उसके मन में। उसने परम के सामने देखा तो पाया कि उसे भी मजा आने लगा था। अपने होठों को थोडासा मरोड़कर वह फिर से अपनी मीठी यादों में खो गई। उसे याद आया, जब उसने पहली बार परम को सिर्फ तौलिये में देखा था। वह स्नान करके बाहर आए, और तैयार होने के लिए कमरे में गये। वह वहाँ दादी के साथ सब्जियाँ काट रहीं थीं। परम को बाथरूम से कमरे तक चलने में मुश्किल से पाँच सेकंड का समय लगा होगा, लेकिन फिर जो झनझनाहट उसके पूरे बदन में फैल गई थी। वह शर्म से नीचे देखने लगी और दादी मुस्कराने लगे थे। आज वे सभी भावनाएँ फिर से जीवित हो गई थीं।

और रातको जब एक मच्छर उसके कान में घूस गया था, बापरे! आधी रात को पूरे घर को सिर पे उठा लिया था। ससुरजी ने तुरंत कान में पानी डालने का सुझाव दिया, और, जादू! मच्छर तुरंत बाहर। परम पूरी रात उसका हाथ पकड़ कर उसके बगल में ही बैठे रहे थे। सभी बड़ों की उपस्थिति में भी!

वो छह दिन, और अनगिनत यादें। उसके जीवन का एक सुनहरा दौर। आज वह फिर से उन सभी हसीन पलों को जी रही थी। परम के एक स्पर्श ने उसके मन में व्याप्त सारी कड़वाहट को दूर कर दिया। उसने छोटी को बाहों में भरके, आँखों को नचाते हुए, परम के सामने देखा, और परम ने भी हल्के से आँख को नचाते हुए मुस्कुराहट कर दी। उसका पूरा जहन फिर से आनन्दित हो गया। अब उसे बहुत जल्दी थी, घर जाने की! परम के साथ बीताया हुआ हर एक पल फिर से जिने की! और जमी हुई भावनाओं को फिर से संजोने की! 
 हाँ, अब जवाब मिल गया था। प्रेम क्या है?

आस्था?
ममता?
वात्सल्य?
स्नेह?
मित्रता?
आकर्षण?
बंधन?
आदत?
जरुरत?
यादें?

हाँ, इन सभी लेबलों को चिपकाने के लिए जो जरूरी होता है वो फेविकोल होता है, प्यार!

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