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बचपन की मधुर यादें

"बचपन की मधुर यादें"
यह बात सन 1989 की है , जब मैं 11वीं कक्षा में पारकर कॉलेज में पढ़ता था । घर दूर होने के कारण मैं पारकर कॉलेज के सामने स्थित उसके हॉस्टल जॉर्डन बॉयज होम में रहता था । हॉस्टल में उठने से लेकर पढ़ाई , खेल व सोने तक का समय निर्धारित होता था और वहां नियुक्त वार्डन साहब की ड्यूटी इसी बात को लेकर होती थी कि सभी बच्चे नियमित दिनचर्या का पालन करें । जो बच्चे निर्धारित दिनचर्या से अलग चलने की कोशिश करते थे उन्हें सजा भी मिलती थी ।
उस दिन शनिवार का दिन था शनिवार की शाम को बच्चों को हॉस्टल में फ्री छोड़ दिया जाता था , कोई स्टडी टाइम नहीं होता था , सभी बच्चे एक दूसरे के कमरों में मंडराते रहते थे । चूँकि मुझे हॉस्टल में 5 वर्ष हो चुके थे, मैं हॉस्टल की सीनियर विंग में रहता था । करीब हम 8 सीनियर बच्चों ने शनिवार की रात्रि को पिक्चर देखने का प्लान बनाया , तय हुआ की वार्डन साहब जब रात हो हॉस्टल की ड्यूटी लगा कर चले जाएंगे तो हम सब लोग चड्ढा सिनेमा में "निगाहें" पिक्चर देखने चलेंगे । वार्डन साहब शाम को हॉस्टल में ड्यूटी लगाने आए वह मेन गेट पर ताला लगाकर चलें गये । उनके जाने के बाद हम 8 लोगों ने निर्धारित स्थान से मेन गेट की डुप्लीकेट चाबी निकाली व गेट खोल कर चड्ढा सिनेमा की ओर चल दिए । हासॅटल से घूमते हुए हम सब चड्ढा सिनेमा पहुंच गए , वहां पहुंचकर भीड़ को देख हम सभी असमंजस में पड़ गए कि इतनी भीड़ में पिक्चर का टिकट कैसे मिलेगा । हम 8 लोगों ने अपनी अपनी जेब से पैसे निकाले और एक जगह एकत्र कर लिए जो कि ₹160 थे उस समय ₹20 का बालकनी का टिकट था उसी हिसाब से हम लोग पैसे लेकर चले थे । मगर भीड़ अधिक होने के कारण हाउसफुल का बोर्ड लग गया और हम सब लोग बड़े मायूस हुए कि इतनी मुश्किल से तो भाग कर आए हैं और टिकट भी नहीं मिली , अभी हम लोग बात कर ही रहे थे कि एक ब्लैक में टिकट बेचने वाला हमारे संपर्क में आ गया और उसने हमें 8 टिकट देने का वादा कर दिया मगर वह ₹200 से कम मे टिकट देने को तैयार नहीं था । अब तो हम लोग और परेशान हो गए हमारे पास केवल ₹160 थे और ब्लैक करने वाला 200 की डिमांड कर रहा था , हमने तय किया देखो शायद कोई जानकार व्यक्ति मिल जाए उससे पैसे उधार ले लेंगे बाद में दे देंगे । सबने इधर उधर नजर दौड़ाई मगर कोई जानकार दिखाई नहीं दे रहा था , मैं भी पैनी नजर से इधर उधर ताक रहा था कि मेरी नजर एक व्यक्ति पर पड़ी जो बिल्कुल वार्डन साहब की तरह लग रहा था , वह व्यक्ति भी हमें घूर घूर कर देख रहा था ।
मैंने अपने सभी मित्रों को कहा कि आज शायद हम लोग फंस गए हैं , यहां वार्डन साहब भी आए हुए हैं और उन्होंने हमें देख भी लिया है । सभी बच्चे वार्डन साहब का नाम सुनकर घबरा गए और वापस हॉस्टल भागने की तैयारी करने लगे । मैंने दिल पक्का कर उनसे कहा कि कल पिटना तो तय है , लिहाजा पिक्चर तो देख ही ले ,सभी ने प्रश्न सूचक दृष्टि से मेरी ओर देखा तो मैंने उनसे कहा कि मैं वार्डन साहब से ₹40 उधार ले आता हूं ताकि हम सब पिक्चर देख सके । सब ने मरे मन से हामी भर दी और मैं वार्डन साहब के पास डरते डरते पहुंचा और पैसे कम पड़ने की बात कही , वार्डन साहब ने तुरंत ₹40 दे दिए और साथ ही सुबह मुलाकात की डोज भी दे दी । मैंने उनसे तुरंत ₹40 लिए वह ₹200 एकत्र कर टिकट ले ली । हम सभी मित्रों ने राम राम करते हुए पिक्चर देखी , पिक्चर खत्म होने के तुरंत बाद हम लोग वार्डन साहब की नजरों से बचकर हॉस्टल भाग आये । अगली सुबह हम सब की हालत पतली थी लेकिन वार्डन साहब ने सुबह हमें कुछ नहीं कहा , स्कूल से लौटने के पश्चात शाम को वार्डन साहब ने हमें आठो को ऑफिस में बुलाया और खूब खातिर की , हम सभी से माफी नामा लिखवाया गया और सभी ने उनसे हाथ जोड़कर प्रार्थना की , कि वह हम लोगों के घर पर कुछ ना कहें । वार्डन साहब ने हमें आइंदा से इस तरह की कोई गलती ना करने की शर्त पर माफ कर दिया ।
आज भी अपनी इन पुरानी कार गुजारियो को सोचकर दिल गुदगुदाने लगता है । उस वाक्य के बाद हम सभी लोगों ने इस तरह की कोई हरकत नहीं की व अच्छे नंबरों से 12वीं पास कर हॉस्टल से सुनहरी यादों को लेकर चले गए ।

(स्वरचित)

विवेक आहूजा
बिलारी
जिला मुरादाबाद
@9410416986
vivekahuja288@gmail.com

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