बनफूल
ये कविताएँ, अपने आसपास की कविताएँ हैं. जिनका अपना वितान है. आशा है कविताएँ पसंद आएंगी.
१.
मनुष्यता
वह मनुष्यता मनुष्यता
कहता रहा,
तुम मनुष्यता मनुष्यता दोहराते रहे
तुम बनते रहे मनुष्य
वह मनुष्यता का गला घोंटता रहा
और तुमसे मनुष्यता को
बचाना तक न हुआ.
**
२.
स्वाभिमान
अजब है कि
तुम हर तरह से
खुद को श्रेष्ठ कहते थे
तुम्हें गर्व था अपने भूत पर,
वर्तमान पर
और भविष्य के लिये
तमाम योजनाएं थी
सम्पत्ति थी, मेधा थी
शक्ति थी
फिर क्या था कि
भरोसा ही न था अपने आप पर
***
३.
वो जो है न
वो जो है न
लडाका था, झुका नहीं
वो टूटा भी नहीं
लालच उसे भी दिया गया था
यातनाएं तुमसे ज्यादा भोगी उसने
फिर भी लीक नहीं छोड़ी
तुम वही थे
जिन्होंने बेच दिया जमीर
टूटते गये
करते गये समझौते
लाभ का और जीवन का गणित
समझे थे तुम
वे समझे थे स्वाभिमान
***
४.
आजादी के ढोंग धतूरे
किसी के आधे
किसी के पूरे
भूख गरीबी औ बेकारी
भोग रहे होरी औ नूरे।
घर को छत तक
भर बैठे है
डमरू बजा बजाकर बेजा
कहते हमको नाच जमूरे।
देश हमारा
माना हमने
पा कुर्सी तुम क्यों कहते
कर देंगे हम सपने पूरे।
५.
सुगंध
हर देह
एक विशिष्ट गंध लिये है
यह शोध में पाया गया
निष्कर्ष है
गंध देह की
आकर्षित करती है
स्त्री पुरुषों को ही नहीं
बल्कि मच्छरों मक्खियों और
दूसरे कीटों को भी
एक गंध उठती है
पसीने से
मादक हो सकती है
किसी मादक पदार्थ की गंध से
भी अधिक
गंध आती है
जो सहन नही होती
बहुधा, श्रम की सुगंध,
सुगंध नहीं होती वहाँ
जहाँ यह तीव्र होती है
क्रीम लोशनों और सुगंध से
भी..
तिरस्कार की नजरें
और वक्र हो जाती हैं
पर मिट्टी की सौंधी खुश्बू
उन्हीं पसीने वाले हाथों से होती
सात समंदर पार जाती है.
और लाखों बनाती है.
(खंडवा के आवल्या क्षेत्र में मिट्टी का इत्र बनाने का कारखाना था.)
६.
बनफूल*
आंगन मे एक फूल खिला तो
चिडिया चहक उठी थी
अमराई में बौर देखकर
कोयलिया भी बहक उठी थी।
पेड़ों ने जब धीरे धीरे
नये वसन थे धार लिये
टेसू भी दहका था जैसे
हाथों में अंगार लिये।
चलने को तो पुरवाई भी,
वन उपवन सौ बार चली
कहने को है पास कि मन में
महुये की एक कली खिली।
वन के भीतर दूर कहीं पर
मांदल पर एक वार हुआ
या कहने को तरुणाई पर
मौसम का अधिकार हुआ।
झूम उठा मन, फागुन के संग,
होठों पर मुस्कान सजी
फिर वनरानी की आँखों में
पिया मिलन की आस जगी।
थिरक उठे पग, मांदल के स्वर,
नभ छूता गुलाल उडा।
पान दिया रंग गाल मला।
वासंती रंग उन्वान चढा।
७.
*समय के घाव*
पगथलियों पर घाव पले हैं
घर से कितना दूर चले हैं.
कुछ आशा की
बांध पोटली
सपनों की दुनिया
देखी थी
किंतु लक्ष्य
कहीं खोया था
मंजिल का था
ध्यान तनिक पर
गत होगी
किसने सोची थी
आसमान ऊपर तपता था
धरती पर तो पांव जले थे.
बरखा का
रूखापन देखा
खेतों का
सूखापन देखा
सूख रहा था
आँचल उसका
दो दिन से
बेटा भूखा था
कहते कहते महतारी की
आंखों से दो बूंद ढले थे.
रौनक चमक दमक
देखी तो
पल भर को सब
श्रम भूल गया था
कुछ पल को
किस्मत पर अपनी
थोड़ा सा तो
वह फूल गया था
मुरझाए वो फूल कभी जो
आशा बन कर जरा खिले थे.
८.
*कविता सूझती है*
जब अचानक लगता है कि
छूटे हो किसी जाल से
उतर गया हो बोझ
तब कविता भी
वैसे ही आती है
बिल्कुल निर्द्वन्द्व
कविता तब भी आती है
जब जूझता है आदमी
अपने ही अंतर्द्वन्द्वों से
या बाहर के
द्वन्द्वों से होता है
दो चार
कविता उठती हैं वहीं
संवेदनशील मन में,
निकालती है राह,
देती है दिशा
एक किरण
उम्मीद की होती है
ऊष्मा विश्वास और
साध्य को पाने की
कविता साधती है सबको
उसको भी जिसकी कलम से
निसृत होती है
उसे भी जो
सुनता है उसे
प्रेम से,
गुनता है ध्यान से
कविता मंत्र हो जाती है
९.
देह में इस तू चली आ
प्रेम का एक भाव बनकर।
चौंधियाते इस शहर में
इक सुकूं का गांँव बनकर।
धूप है जो छेडती है भर दुपहरी
और लंबे इस सफर में
है उदासी घोर ठहरी
राह में तू आ घनेरी सी
विटप की छांव बनकर।
दे रहा सागर थपेडे़ हर लहर पर
छू रहा है नभ को देखो
यह गरज कर
जिंदगी फिर भी है चलती
पतवार वाली नाव बनकर।
१०.
बन तो बरगद सा सदा, फैला हो चहुंओर
पंथी को विश्राम हो, मिले जीव को ठौर।
मिले जीव को ठौर, पंछी सब भोजन पाए
ले अपान वायु को, प्राण वायु सदा लुटाए
कह सुधीर कविराय, समझ लो रे सारे जन
फूलते रहो हमेशा, तुम रहो बरगद से बन।
११.
बरगद देता छाँव है, दिनभर को घनघोर
और शाम को गूंजता, है पाखिन का शोर
है पाखिन का शोर, गिलहरी करे अठखेली
आकर करे आराम, लगाता दिन भर फेरी
कह सुधीर कविराय, देख खेतों की सरहद
वृक्ष लगाओ यार, जिनमें एक हो बरगद।
१२.
तापमान है बढ रहा, धरती का दिनरात
समझा रहे गुनवान सब, पर न आता ज्ञान
पर न आता ज्ञान, इनको समझाए कौन
जंगल सारे कट गये, पंछी हो गये मौन
कह सुधीर कविराय, बंदे तब करना अभिमान
तेरे कर्मों से घटे, धरती का तापमान।